तन्त्र का चरम लक्ष्य : अद्वैत सिद्धि

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  • तंत्र शास्त्र
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  • 14 July 2025
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पंडित देवदत्त शास्त्री 
 

तन्त्रशास्त्र का मत है कि जो कुछ विश्व-ब्रह्माण्ड दिखाई पड़ता है और जो विविध रूप है, वह अनेकधा होने पर भी वस्तुतः एक है। इस एक को अनेक बनाने बाली दो सत्ताए हैं। उनमें से जो दूसरी सत्ता है वह दो अवस्थानों में प्रकट होती है। एक के साथ अभिन्न रूप में जुड़ी हुई प्रथम अवस्था है और एक से भिन्न रूप में प्रकाशमान किन्तु अभिश्न रूप में जुड़ी हुई जो सत्ता है उसे 'यामल सत्ता' कहते हैं। इन्हीं दो सत्ताबों के मिलन (योग से) से सृष्टि का सर्जन होता है। एक ओर दो जहाँ युग्म रूप से प्रकाशमान हैं, वहाँ दोनों के मिलन से परम अद्वैत सत्ता का प्रकाश होता है और जहाँ पहली और दूसरी सताए पृथक् रूप में स्थित है, बहाँ दोनों के मिलन से भेदमय बाह्य जगत् का प्रकाण होता है। प्रथम स्थिति को अन्तरङ्गाणक्ति और दूसरी स्थिति को बहिरङ्गाशक्ति कहा जाता है। आगमशास्त्रों में रेखाओं द्वारा इस तत्व को समझाया गया है।

तान्त्रिक आचार्यगण जिसे परमसत्ता कहते है, बही निष्कलपरमपद है। उसी को परमशिव कहा जाता है और उसी का वर्णन पराशक्ति या महामक्ति के रूप में किया जाता है। यह महाशक्ति चिद् रूप और अखण्ड प्रकाश रूप है। वही गत् रूप है, वही बित् रूप है। वह निरपेक्ष स्वभाव रखने के कारण आनन्दमय है। वह स्वतन्त्र शक्ति रखती है, इसलिए अद्वैत होते हुए भी इत हो सकती है। वह निःस्पन्द होते हुए भी स्पन्दनशील हो सकती है। यही कारण है कि तंत्रशास्त्र में शिव तथा शक्ति में कोई भेद नहीं माना जाता है। दोनों अभिन्न है, शक्ति के बिना शिव इच्छाहीन, क्रियाहीन है और स्पन्दन में भी असमर्थ हैं. शिव और शक्ति की यह अभिन्नता ही सामरस्य है।

तन्त्रशास्त्र का मत है कि 'सृष्टि' के मूल में विन्दु है। परमशक्ति के स्वातंत्र्य से जब स्पन्दन इस बिन्दु का स्पर्श करता है तो बिन्दु रेखा बन जाती है। जो सबसे छोटी रेखा है वह दो विन्दुओं से बनती है। इसकी परवर्ती सृष्टि बिन्दु से नहीं तीन रेखाओं में होती है। इन तीनों रेखाओं से जो त्रिकोण बनता है बही सृष्टि का मूल है, जिसे योनि कहा जाता है। वेदान्त सूत्र भी यह मानता है कि योनेः शरीरम्' अर्थात् योनि के आश्रय से ही शरीर उत्पन्न होता है।

सृष्टि के मूल में एक ही परम सत्ता है, जिने परमाशक्ति, महाशक्ति, मातृका या विश्वजननी कहा जाता है। यह अनेक सयों में प्रकाशयान होती है। मृष्टि के मूल में जो मातृका है, वह मूलतः एक है, अभिन्न है। यही अक्षर ब्रह्म की क्षरात्मक स्वरूप-भूताशक्ति है। प्राचीन आगमों में इसे परावाक् कहा गया है। वैदिक साहित्य का शब्द ब्रह्म यही परामातृका विश्वजननी है। यह नित्य प्रकाशमान है, स्वयंसिद्ध है और परिपूर्ण है। इसके बाहर कुछ भी नहीं और न रह ही सकता है। यही पूर्ण अहं, परब्रह्म परमात्मा है।

यह पूर्ण अहं चैतन्य स्वरूप है। इसमें केवल अहंता ही है। इसकी इदंता का जब स्फुरण होता है तो सर्वप्रथम सर्वशून्य रूप परमाकाश का आविर्भाव होता है, फिर उसी के आश्रम से अनन्त अहं द्वितीय रूप में प्रकट होता है। इसी का नाम इवं सृष्टि है, जिसे महासृष्टि कहते हैं।
 

तंत्र सिद्धांत और साधना से साभार:



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