डॉ० दीनदयाल मणि त्रिपाठी ( प्रबंध संपादक)
शाक्त मतानुसार समस्त चराचर जगत 'शक्ति' से ही उत्पन्न होता है। अतः परमतत्त्व के रूप में शक्ति को ही परमाराध्या माना गया है। यद्यपि ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता एवं महेश को संहारकर्ता माना गया है, लेकिन सूक्ष्मता से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि ब्रह्मा में सृष्टि-शक्ति, विष्णु में पालनशक्ति तथा महेश में संहारशक्ति निहित है। इसी प्रकार सूर्य में प्रकाश-शक्ति, अग्नि में तेजशक्ति, जल में शैत्य शक्ति विद्यमान है। अतः सभी का मूल आधार 'शक्ति' है।
सर्वशाक्तमजीजन्यत् - इस वेद वाक्य के अनुसार समस्त विश्व शक्ति से ही उत्पन्न होता है। शक्ति के द्वारा ही अनन्त ब्रह्माण्डों का पालन पोषण और संहारादि होता है। ब्रह्मा, शंकर, विष्णु, अग्नि, सूर्य, वरुण आदि देव भी उसी शक्ति से सम्पन्न होकर स्व स्व कार्य करने में सक्षम हैं-
शक्तिः करोति ब्रह्माण्डं सा वै पालयतेऽखिलम् ।
इच्छया संहरत्येषा जगदेतच्चराचरम् ।।
न वष्णुिर्न हरः शक्रो न ब्रह्मा न च पावकः ।
न सूर्यो वरुणः शक्त स्वे-स्वे कार्ये कथञ्चन ।।
तया युक्ता हि कुर्वन्ति स्वानि कार्याणि ते सुराः ।
कारणं सैव कार्येषु प्रत्यक्षेणावगम्यते ।।
वरिष्ठ ऋषि महर्षियों ने भी शक्ति उपासना के बल से अनेक लोककल्याणकारी कार्य किए हैं। निगम, आगम, स्मृति, पुराण आदि भारतीय संस्कृत वाङ्गमय में शक्ति उपासना की विविध विधायें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इसमें सर्वश्रेष्ठ स्थान 'श्रीविद्या साधना' का है। भारत की यह परम रहस्यमयी सर्वोकृष्ट प्रणाली मानी जाती है। ईश्वर के निःश्वासभूत होने से वेदों की प्रमाणिकता है, तो शिव प्रोक्त होने के कारण तंत्रों की स्वतः प्रमाणिकता है। अतः सूक्ष्म रूप से वेदों में एवं विशदरूप से तंत्र शास्त्रों में श्रीविद्या साधना क्रम का विवेचन है।
अद्वैतमत यद्यपि सारगर्भित है, लेकिन ज्ञानकाण्ड पर अधारित रहने के कारण यह मात्र विवेक प्रधान व्यक्तियों के लिए ही उपादेय है। अतः सर्वसाधरण की सुगमता के लिए आदि शंकराचार्य ने श्रीविद्या का प्रतिपादन किया। इस विद्या का उत्कृष्ट वर्णन 'सौन्दर्यलहरी' में वर्णित है, जिसमें शिव और शक्ति की समरसता का वर्णन करते हुए कहा गया है- शिव, शक्ति के संयुक्त होकर ही क्रियाशील होता है, शक्तिरहित होकर उसमें स्पन्दन की क्षमता नहीं होती। अतः उसे स्वयं को सक्रिय करने में शक्ति कीअपेक्षा होती है-
शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितु ।
न चेदेव देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ।।
(सौन्दर्यलहरी)
यही शक्ति तत्त्व श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी है। आगम शास्त्रों में शिव तत्त्व ही 'परब्रह्म' है और शक्ति तत्त्व 'शब्दब्रह्म' है। शक्ति उपासना से शिवत्व प्राप्ति ही शब्द ब्रह्म से परब्रह्म की प्राप्ति है। शिव तत्त्व, शक्ति के साथ संयुक्त होकर छत्तीस तत्त्व रूपी उपादान से जगत् एवं इसमें उपस्थित विभिन्न प्रकार के विषय-वस्तुओं की उत्पत्ति करता है। इस प्रकार वह स्वयं को दृश्यमान जगत के रूप में आभासित करता है । पुनः जीव शक्ति की उपासना द्वारा ही शिवत्व को प्राप्त करता है। जैसेदीपक के प्रकाश एवं सूर्य की किरणों से दिशाओं के विभाग का ज्ञान होता है, उसी प्रकार शक्ति द्वारा ही शिव की प्राप्ति होती है-
यथालोकेन दीपस्य किरणैर्भास्करस्य च ।
ज्ञायते दिग्विभागादि तद्वच्छक्त्या शिवः श्रितः ।।
विज्ञान भैरव
पुनः कहा गया है- बिन्दु और नाद अर्थात् शिव शक्ति ही परमतत्त्व है-
बिन्दुनादौशक्तिशिवौ शान्तातीतौ ततः परम् ।
षटत्रिंशत्तत्त्वमित्युक्तं शैवागम विशारदै ।।
मानसोल्लास
प्रकाश, बिन्दु, शिव ये परब्रह्म के पर्याय हैं। निर्गुण निराकार ब्रह्म में 'सिसृषा सृजन करने की इच्छा के फलस्ररूप ही (प्रकाश से विमर्श, बिन्दु से नाद) शिव से शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। इसे ही इच्छाशक्ति, चित्शक्ति, महाशक्ति आदि नामों से प्रतिपादित किया गया है।
समस्त विश्व में और विश्व के अनन्त प्राणियों में अन्तर्वहि, मध्य सर्वत्र व्याप्त चैतन्य तत्त्व ही 'श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी' हैं, जो पूर्ण स्वातंत्र्य, सर्वज्ञान, क्रियासम्पन्न चेतन तत्त्व आत्मस्वरूप है। अतः आत्मोपासना ही श्रेष्ठ है। कहा गया है- जो आत्मदेवता को छोड़कर अन्य देवता की उपासना करते हैं, वे भिक्षा माँगकर बहुत धन प्राप्त कर लेने पर भी बुभुक्षित भिक्षुक ही रहते हैं-
उत्सृत्य स्वयमात्मानं ये ध्यायन्त्यन्यदेवता ।
भिक्षित्वा भूरिरिथ्तास्ते भिक्षित्वापि बुभुक्षिताः ।।
गीता निष्यन्द्
आत्मारूपा श्रीललिता महात्रिपुर सुन्दरी की साधना का मूल आधार 'श्रीविद्या' है।