कु. कृतिका खत्री,सनातन संस्था, दिल्ली
Mystic Power -हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए जो कुछ भी किया है, उसका ऋण चुकाने के लिए श्रद्धा पूर्वक जो किया जाता है, वह श्राद्ध है।
श्राद्ध विधि हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण आचार है तथा उसे वेदकाल का आधार है । अवतारों ने भी श्राद्ध विधि किए हैं, ऐसा उल्लेख है । व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत उसकी आत्मा को सद्गति मिले, इसलिए श्राद्ध करना – यह हिन्दू धर्म का वैशिष्टय है । प्रत्येक वर्ष आश्विन मास के कृष्णपक्ष को महालय श्राद्ध किया जाता है । ‘श्रद्धा’ शब्द से ‘श्राद्ध’ शब्द की निर्मिति हुई है । इहलोक छोड़ गए हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए जो कुछ किया, वह उन्हें लौटाना असंभव है । पूर्ण श्रद्धा से उनके लिए जो किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं ।
श्राद्ध’ का अर्थ पितरों का मात्र कृतज्ञतापूर्वक स्मरण नहीं; अपितु यह एक विधि है ।’ पितरों के लिए श्राद्ध न करने पर उनकी अतृप्त इच्छाओं के रहने से परिवार वालों को कष्ट हो सकता है। श्राद्ध से पितरों का रक्षण होता है, उनको आगे की गति मिलती है और अपना जीवन भी सहज होता है । पितृपक्ष में पितरों का महालय श्राद्ध करने से वे वर्ष भर तृप्त रहते हैं ।
पितृपक्ष में श्राद्ध क्यों करें - पितृपक्ष में वातावरण में तिर्यक तरंगों की (रज-तमात्मक तरंगों की) तथा यम तरंगों की अधिकता होती है । इसलिए पितृपक्ष में श्राद्ध करने से रज-तमात्मक कोषों से संबंधित पितरों के लिए पृथ्वी की वातावरण-कक्षा में आना सरल होता है । इसलिए हिन्दू धर्म में बताए गए विधि कर्म उस विशिष्ट काल में करना अधिक श्रेयस्कर है ।’
श्राद्ध विधि का इतिहास :
‘श्राद्धविधि की मूल कल्पना ब्रह्मदेव के पुत्र अत्रिऋषि की है । अत्रिऋषि ने निमी नामक अपने एक पुरुष वंशज को ब्रह्मदेव द्वारा बताई गई श्राद्ध विधि सुनाई । यह रूढ आचार आज भी होता है ।
मनु ने प्रथम श्राद्ध क्रिया की, इसलिए मनु को श्राद्धदेव कहा जाता है ।
लक्ष्मण एवं जानकी सहित श्रीराम के वनवास-प्रस्थान के उपरांत, भरत वनवास में उनसे जाकर मिलते हैं एवं उन्हें पिता के निधन का समाचार देते हैं । तदुपरांत श्रीराम यथाकाल पिता का श्राद्ध करते हैं, ऐसा उल्लेख रामायण में (श्रीरामचरितमानस में) है ।पितृपक्ष के कारण एवं उनका उपाय : वर्तमान काल में पूर्व की भांति कोई पितृपक्ष में श्राद्ध-पक्ष इत्यादि नहीं करता और न ही साधना करता है । इसलिए अधिकतर सभी को पितृदोष (पूर्वजों की अतृप्ति के कारण कष्ट) होता है ।
पितृदोष के कुछ लक्षण दिए हैं – विवाह न होना, पति-पत्नी में अनबन, गर्भधारण न होना, गर्भधारण होने पर गर्भपात हो जाना, संतान का समय से पूर्व जन्म होना, मंदबुद्धि अथवा विकलांग संतान होना, संतान की बचपन में ही मृत्यु हो जाना आदि । व्यसन, दरिद्रता, शारीरिक रोग, ऐसे लक्षण भी हो सकते हैं ।पितृपक्ष में श्री गुरुदेव दत्त का नामजप करें ! - भगवान दत्तात्रेय का नामजप पितृपक्ष में नियमित रुप से करने से पितरों को शीघ्र गति प्राप्त होती है; इसलिए इस कालावधि में प्रतिदिन दत्त भगवान का नामजप न्यूनतम 6 घंटा (72 माला) करें ।
शास्त्रों के अनुसार श्राद्धविधि न करने से संभावित हानि :
लिंगदेह एक ही स्थिर कक्षा में अनेक वर्षों तक अटकी रहती है ।
अटकी हुई लिंगदेह मांत्रिकों के वश में फंस कर उनकी आज्ञानुसार परिवार के सदस्यों को कष्ट दे सकती है । लिंगदेह आगे न जाकर एक नियत कक्षा में अटके रहने से उनके कोष से प्रक्षेपित परिजनों से संबंधित आसक्ति दर्शक लेन-देन युक्त तरंगों के प्रादुर्भाव में परिवार के सदस्य होते हैं । इसके कारण उन्हें कष्ट होने की आशंका अधिक होती है ।
कोई भी धार्मिक कृति करते समय उसके पीछे का भाव महत्वपूर्ण होता है - ‘साधारणत: कोई भी धार्मिक कृति करते समय उसके पीछे का भाव महत्त्वपूर्ण होता है । भाव सहित की गई कृति का फल अधिक मिलता है । इस नियमानुसार श्राद्ध कर्म केवल यंत्रवत करने की अपेक्षा ‘पूर्वज तृप्त हों और उन्हें शीघ्र गति मिले’, इस तीव्र इच्छा से श्राद्ध कर्म करने पर उसका फल अधिक मिलता है । हमारी सदिच्छा और हमारे द्वारा अर्पित अन्न पूर्वजों की लिंगदेहों को सूक्ष्म से प्राप्त होता है; परंतु दृश्य स्वरूप में हमारे लिए उसकी पुष्टि प्राप्त करना संभव नहीं होता ।
संदर्भ : सनातन का ग्रन्थ भगवान् दत्तात्रेय
Comments are not available.