डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक )-
तन्त्र शास्त्रों का मूलभूत सिद्धान्त है- इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति। सर्वप्रथम इच्छा होती है कि मुझे यह चाहिए या यह करना है, इसलिए इसे इच्छाशक्ति कहते हैं। पुनः इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए जानकारी की जाती है, उसे ज्ञानशक्ति कहते हैं। इच्छित बस्तु की प्राप्ति के लिए प्रयास करना क्रियाशक्ति है।
वर्तमान में श्रीविद्या एवं श्रीयन्त्र के विषय में लोगों की यह धारणा बनती जा रही है, कि श्री का अर्थ है लक्ष्मी, तो यह लक्ष्मी प्राप्ति की विद्या है, एवं श्रीयन्त्र का अर्थ है- लक्ष्मी प्राप्ति का साधन ।
श्रीविद्या और श्रीयन्त्र के साथ श्री शब्द जुड़ा है, अतः इस अर्थ युग में इसके प्रति उत्सुकता होनी स्वाभाविक है। लेकिन सिर्फ धन प्राप्ति के लिए ही इसकी साधना करना चक्रवर्ती सम्राट् से धान का तुष माँगने के समान है।
श्रीविद्या साधना को भारतीय आध्यात्मिक वाङ्गय में ब्रह्मविद्या का स्वरूप माना गया है। यह शाक्तदर्शन की रहस्यात्मक विद्या है। अतः इसके शास्त्रीय रूप को जानने के लिए कुछ भूमिका आवश्यक है। मानव स्वभाव से ही चिन्तनशील प्राणी है। अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण उसे बौद्धिकता की प्रथम अनुभूति में ही सृष्टि एवं इससे जुड़े तथ्यों के विषय में सहज ही विविध जिज्ञासायें उत्पन्न होती हैं, इन सभी जिज्ञासाओं का विलय तत्त्वज्ञान में उसी प्रकार हो जाता है, जिस प्रकार अनेक नदियाँ जाकर समुद्र में मिल जाती हैं।
सामान्य व्यक्ति प्रकृति से सम्बन्धित तथ्यों को प्राकृतिक मानकर सहज ही स्वीकार कर लेता है, मात्र प्रबुद्ध व्यक्ति को ही तत्त्व जिज्ञासा होती है। वह जानना चाहता है कि यह दृश्यमान जगत क्या है? इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई? मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाऊगाँ? आदि प्रश्नों का द्वन्द्व उसके मन में उत्पन्न होता है। इन प्रश्नों का समाधान हमारे शास्त्रों में निहित है। वेद शास्त्रों केतत्त्ववेता ऋषि-मुनि, महा- मेधावी चिन्तकों ने विशद रूप से व्याख्या करके संभावित सभी जिज्ञासाओं का पूर्ण रूप से प्रतिपादन करके संभावित सभी जिज्ञासाओं का पूर्ण रूप से युक्तिसंगत समाधान करने का प्रयास किया है। इन प्रश्नों के तार्किक एवं युक्तिसंगत समाधान में 'तंत्र' या 'आगम' की भी मुख्य भूमिका रही है। श्रीविद्या साधना के वेद, पुराण, उपनिषदों में संकेत प्राप्त होते हैं। परन्तु तंत्रशास्त्रों में इस साधना का विशद विवेचन एवं विस्तृत विधि विधानों का उल्लेख उपलब्ध है। अतः तंत्र शास्त्रों के स्वरूप पर आलोचना आवश्यक है।