दक्षिणामूति का बाश्रयण करने से इसे दक्षिणाचार कहा गया है। यह आचार वीरभाव और दिव्यभाव सम्पन्न साधकों के लिए प्रवर्तित किया गया है। भगवती परमेश्वरी की पूजा वेदाचार क्रम से की जाती है। विजया-दशमी की रात में इस आचार को ग्रहण कर बनन्यधी होकर मूलमन्त्र का जप किया जाता है।
भावरहस्य में वामाचार वीरभाव में स्थित साधक के लिए दक्षिणाबार और वामाचार दोनों विधियों से साधना का विधान है। स्वधर्म निरत साधक पथ्व तत्त्वों (पञ्च मकारों) से भगवती पर देवता को अर्चना करे। अष्टपाशों से रहित साधक साक्षात् शिव बनकर परम प्रकृति भगवती शक्ति की आराधना करे। सदा तन-मन से पवित्र रहकर महामन्त्र की साधना करे, वीरभाव से दिव्यप्नाव में प्रविष्ट होने पर साधक सिद्धान्ताचार में तत्पर हो और फिर कौलाचार को ग्रहण करे। अपने को देवता मानकर सूक्ष्मतत्त्व की भावना से मानसिक पूजा करे ।
भावरहस्य में सिद्धान्ताचार एवं कुलाचार
शम, दम युक्त होकर योगयुक्त साधक, अपने में परमात्मभाव रखकर, योगभाव से जब साधना करता है तो उसकी वह साधना-पद्धति सिद्धान्ताचार कहलाती है।
भावरहस्य में कुलाचार- जिस प्रकार शिशु सभी कर्मों को भूलकर माता के स्तनों का पान करता है, उसी प्रकार साधक ज्ञातमार्ग में प्रविष्ट होकर सतोगुण से समन्वित होकर, आचारविहीन होने पर भी ब्रह्मभाव में निरत रहता है, तब पूर्णा-नन्दपरायण की वह साधना-पद्धति कौलाचार कहलाती है।