अस्मिन् मार्गे सर्वश्रेयोमूलभूतो गुरुरेव,
इस (नाथपंथ, सिद्धमत, सिद्धामृत) मार्ग में गुरु ही समस्त मंगलों का स्वरूप (मूल आधार) है, दूसरा कोई नहीं, केवलमात्र अवधूत ही गुरु हो सकता है। अवधूत है कौन ? इस सम्बन्ध में (जिज्ञासा की तृप्ति के लिये) कहा है:
जिसके प्रत्येक वचन में वेदमंत्र (वेद का सारतत्व) सन्निहित (अभिव्यक्त) है, (प्रत्येक वच वेदमंत्र ही है), जिसके पदन्पद में तीर्थं बसते हैं (जिसके चलने सें पदस्पर्श मात्र से भूमि तीर्थस्वरूपिणी हो जाती हैं), जिसकी प्रत्येकः (कृपा) दृष्टिं में कैवल्य-मोक्ष प्रदान करने की क्षमता है (जिसकी कृपा दृष्टि पड़ते ही योग साधक अपने निरंजनस्वरूप में स्वस्थ हो जाता है), वह अवधूत हमारा कल्याण करे । जिसके एक हाथ में त्याग (निवृत्ति, मोक्ष) है और दूसरे हाथमें भोग ( प्रवृत्तिमार्ग का समस्त सुखसाधन है, पर जो निवृत्ति और प्रवृत्ति (मोक्ष और भोग) में (सर्वथा) अलिप्त है, वह अवधूत हमारा कल्याण करे ।
सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में :-
यः सर्वान् प्रकृतिविकारान् अवधुनोतीत्यवधूतः ।
(६।१) प्रसर भासते शक्तिः संकोचं भासते शिवः ।
तयोर्योगस्य कर्ता यः स भवेत्सिद्धयोगिराट् ॥ ६ । ६३ )
जो प्रकृति के विकारों (पांचभौतिक देहगत आसक्ति और उससे सम्बन्धित घन, स्त्री, पुत्र के प्रति मोहादि भावजन्य विकारों का (अवधूनन) त्याग कर देता है, वही अवधूत कहा जाता है, (वही योगी है)। शक्ति सृष्टि का विस्तार ( प्रसार) प्रकाशित करती है, शिव (सृष्टि का संकोच) संहार प्रकट करते हैं, जो सृष्टि और संहार, दोनों क्रियाओं को करने में समर्थ है, वह सिद्धयोगिराज हो जाता है।
ब्रह्मा से लेकर हूँ पर्यन्त - समस्त (चराचर) जगत् परमात्मा में ही अधिष्ठित (समाया) है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम से भी परे पंचमाश्रम में स्थित मैं (अवधूत) उनमें भेद-अभेद नहीं देखता हूँ। (मेरी दृष्टि में परमात्मस्वरूप वे अभेद हैं, एक हैं।)
सूतसंहिता में:-
अतिवर्णाश्रमी प्रोक्तो गुरुः सर्वाधिकारिणाम् । न कस्यापि भवेच्छिष्यो यथाहं पुरुषोत्तमः ॥ ('ग्याहं पुरुषोत्तमः' इति विष्णुप्रति शिववचनम्।) अतिवर्णाश्रमो साक्षाद् गुरूणां गुरुरुच्यते तत्समो नाधिकश्चास्मिल्लोकेऽस्त्येव न संशयः ॥ 1
(मुक्तिखण्ड ५।१४-१५)
चारों वर्षों और चारों आश्रमों के आचार-विचार से भी श्रेयस्कर पंचम आश्रम के आचार-विचार में (आत्मस्वरूपज्ञान में) सन्निष्ठ अतिवर्णाश्रमीं समस्त अधिकारी, योगमार्ग के उपयुक्त शिष्यों का गुरु कहा जाता है। वह स्वयं किसी का भी शिष्य नहीं होता, जिस तरह मैं पुरुषोत्तम हूँ, उसी तरह वह अवधूत योगिराज होता है। 'यथाहं पुरुषोत्तमः' यह शिवजी का वचन (भगवान् ) विष्णु के प्रति है। अतिवर्णाश्रमी अवधूत योगिराज गुरुओं का भी साक्षात् गुरु कहा जाता है। निस्सन्देह इस लोक (संसार) में उसके समान अथवा उससे बढ़कर कोई भी गुरुपद के योग्य नहीं है।
श्रीमहंत अवैद्यनाथ गोरक्षपीठाधीश्वर