डॉ.मदनमोहन पाठक (धर्मज्ञ )-
Mystic Power
(षडध्वशोधन की विधि)-गुरु शिष्य को योग्य पाकर उसकी भूत शुद्धि (षडध्वशोधन ) करते हैं जिससे शिष्य सम्पूर्ण बंधनों से मुक्त हो सके। कला, तत्त्व, भुवन (आकार), वर्ण (रंग), पद (देव) और मंत्र (बीजमंत्र), ये छः प्रकार की अध्वाएं कही गई हैं। अध्वा का अर्थ है नीचे की ओर।
पहली अध्वा कला है। कला पांच प्रकार की कही गई हैं जो कि आकाशादि तत्त्वों का रूप है। निवृत्ति कला पृथ्वीतत्त्वरूपिणी है, प्रतिष्ठाकला जलतत्त्वरूपिणी है, विद्याकला अग्नितत्त्वरूपिणी है, शांतिकाला वायुतत्त्वरूपिणी है, और शंत्यातीतकला आकाशतत्त्वरूपिणी है।
इस प्रकार स्थिर तत्त्व (पृथ्वी), अस्थिर तत्त्व (वायु), शीत तत्त्व (जल), ऊष्ण तत्त्व (अग्नि) तथा व्यापकता एवं एकतारूप आकाश तत्त्व का भूत शुद्धि में चिंतन किया जाता है। तत्त्व, भुवन, वर्ण, पद और मंत्र ये पंचों अध्वाएं, पंचों कला अध्वओं से व्याप्त हैं। पाँचों कला अध्वओं एवं पाँचों भूतों (तत्त्वों) का शुद्ध होकर अव्यय ब्रह्म में मिल जाना ही भूत शुद्धि है। सबसे पहले गुरु शिष्य के मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी को जागते हैं और क्रमशः स्वाधिष्ठान व मणिपुर चक्र का भेदन कर सुषुम्णा नाड़ी के रास्ते से हृदय में स्थित अनाहत चक्र में लाते हैं।
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वहां दीये की लौ के सामान आकार वाले शिष्य के जीव को कुण्डलिनी के मुख में लेकर विशुद्धि चक्र (कंठ में) एवं आज्ञा चक्र (भ्रूमध्य) का भेदन करते हैं और ब्रह्मरंध्र में स्थित सहस्रार चक्र में ले जाते हैं। वहां ईश्वर का निवास है। शिष्य की जीवात्मा सहित कुण्डलिनी को परमात्मा में विलीन कर देते हैं (जोड़ देते हैं)। इस दौरान पृथ्वी तत्त्व (चौकोर आकृति, पीला रंग, ब्रह्मा देवता पद, बीजमंत्र लं, निवृत्ति कला, पैर के तलुवों से जंघा तक) का विलय जल तत्त्व (अर्धचंद्र आकृति, सफ़ेद रंग, विष्णु देवता पद, बीजमंत्र वं, प्रतिष्ठा कला, जंघा से नाभि तक) में करते हैं। जल तत्त्व का विलय अग्नि तत्त्व (त्रिकोण आकृति, लाल रंग, शिव देवता पद, बीजमंत्र रं, विद्याकला, नाभि से हृदय तक) में करते हैं। अग्नि तत्त्व का विलय वायु तत्त्व (गोलाकार, धूम्र वर्ण, ईशान देवता पद, बीजमंत्र यं, शांति कला, हृदय से भ्रूमध्य तक) में करते हैं। वायु तत्त्व का विलय आकाश तत्त्व (वृत्ताकार, स्वच्छ वर्ण, सदाशिव देवता पद, बीजमंत्र हं, शान्त्यातीत कला, भ्रूमध्य से ब्रह्मरंध्र पर्यंत) में करते हैं। इसके बाद आकाश को अहंकार में, अहंकार को महत्तत्त्व (बुद्धि) में, महत्तत्त्व को प्रकृति में और प्रकृति को परमात्मा में विलीन करते हैं।
इस प्रकार शिष्य के सूक्ष्म शरीर का शोधन करके, शिष्य की बांयी कुक्षी में पाप पुरुष का ध्यान करते हैं। ब्रह्महत्या इस पाप पुरुष का सर है, सोने की चोरी उसके हाथ हैं, सुरापान उसका हृदय है, गुरुतल्पगमन उसकी कमर है, पापी पुरुषों का संग उसके पैर हैं। उसके सारे अंग पाप से बने हैं। वह क्रोध व दाम में भरा हुआ है, हाथों में तलवारादि अस्त्र लिए हुए है। फिर गुरु उस पाप पुरुष को सुखाने के लिए यं बीज की १६ आवृत्ति के साथ पूरक (सांस भीतर खींचना) द्वारा उस वायुबीज से उत्पन्न वायु से सशरीर पाप पुरुष को सुखाने की भावना करते हैं। इसके बाद गुरु अग्निबीज रं की कुम्भक (सांस भीतर रोकना) द्वारा ६४ आवृत्ति करके रं बीज से उत्पन्न अग्नि से उस पाप पुरुष को शिष्य के सूक्ष्म शारीर के साथ दग्ध करते हैं (जला कर भस्म कर देते हैं)। फिर पाप पुरुष की भस्म निकालने के लिए वायु बीज यं की रेचक (सांस बाहर छोड़ना) द्वारा ३२ आवृत्ति करते हैं। फिर उस राख को जल बीज वं द्वारा अमृत कणों से आप्लावित करते हैं। फिर पृथ्वी बीज लं से उस आप्लावित भस्म को घनीभूत करते हैं और उसमें आत्मा की स्थापना करके आकाशबीज हं द्वारा शिर से लेकर पैर तक सरे अंगों की रचना करते हैं।
फिर प्रकृति से लेकर पंचमहाभूतों तक शिष्य के शुद्ध सूक्ष्म अध्वमय शारीर का निर्माण करते हैं। फिर शिष्य के हृदय कमल पर ईष्ट देव का आह्वान कर पूजन करते हैं, और कुण्डलिनी को पुनः मूलाधार में ले जाते हैं। फिर शिष्य में भगवन के स्वरुप की नित्य स्तिथि मानकर ईश्वर के तेज से तेजस्वी हुए उस शिष्य में अणिमा आदि गुणों की भावना करते हैं, और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि "आप प्रसन्न हों"।
इस प्रकार पुनः शिष्य के लिए सर्वज्ञता, तृप्ति, आदि-अंतरहित बोध, अलुप्तशक्तिमत्ता, स्वतंत्रता और अनंत शक्ति इन गुणों की उसमें भावना करते हैं। फिर ईष्ट देव का मंत्र शिष्य को प्रदान करते हैं और ईष्ट देव से प्रार्थना करते हैं कि "मैंने जो कुछ भी किया है उसे आप सुकृतरूप कर दें। " और फिर गुरु शिष्य के साथ ईश्वर को साष्टांग प्रणाम करते हैं, और प्रणाम के बाद ईष्ट देव (ईश्वर) का दीक्षा स्थान से एवं हवं कि अग्नि से विसर्जन कर देते हैं। इस प्रकार भूत शुद्धि की क्रिया द्वारा शिष्य परमात्मा की सत्ता, प्रेम, शक्ति, कृपा, सान्निध्य एवं सायुज्य प्राप्त कर परम पवित्र एवं दिव्य हो जाता है एवं ईष्ट की आराधना के योग्य हो जाता है।
गुरु के अभाव में यदि कोई साधक भगवान के किसी भी स्वरुप को ही गुरु मानकर साधना करता है तो अतिशय प्रेमपूर्वक एवं भक्तिपूर्वक उन ईष्ट देव का भजन करने से, जब वे ईष्ट देव प्रसन्न होकर हृदय कमल पर आकर बैठ जाते हैं तो यह भूत शुद्धि या षडध्वशोधन क्रिया उनके द्वारा उचित समय पर की जाती है जिसका पता साधक को नहीं लग पाता, परन्तु ईश्वर के प्रेम में एवं भक्ति में तल्लीन वह साधक पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाता है और परमात्मा की सत्ता, शक्ति, कृपा, प्रेम, सान्निध्य व सायुज्य को प्राप्त कर लेता है और परम पवित्र अवं दिव्य हो जाता है। उसमें भी सर्वज्ञता, तृप्ति, आदि-अंतरहित बोध, अलुप्तशक्तिमत्ता, स्वतंत्रता और अनंत शक्ति इन गुणों का विकास ईश्वर की कृपा से सहज ही हो जाता है।
समर्थ साधक स्वयं भी ऊपर कही गई भूत शुद्धि की क्रिया को स्वयं के लिए कर सकता है, इससे साधना के विघ्न नष्ट होते हैं और साधना कि गति बढती है।
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