शशांक शेखर शुल्ब- (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- अपनी धुरी पर घूमती हुई पृथ्वी से मध्य आकाश में छोटे-छोटे तारे पृथ्वी के घूमने की विपरीत दिशा में पूरब से पश्चिम जाते हुए दिखाई देते हैं। पृथ्वी के एक बार पूरा घूम जाने पर अर्थात् २४ घंटे बाद, जिस समय जिन तारों को जहाँ देखा था, दूसरे दिन भी उसी समय वह तारे लगभग उसी जगह दिखाई देते हैं। इस प्रकार २४ घंटे में वृत्ताकार मध्य आकाश के तारे हमारे सामने से घूम जाते हैं।
सूर्य की परिक्रमा करती हुई पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण इनकी स्थिति में वार्षिक परिवर्तन भी स्पष्ट दिखाई देता है। गुरु, शुक्र आदि सभी ग्रह भी इन नक्षत्र समूहों के समीप से प्रतिदिन उसी समय पर कुछ-कुछ अपने स्थान परिवर्तन के साथ दिखाई पड़ते हैं। उनका यह स्थान परिवर्तन पृथ्वी की वार्षिक परिक्रमण गति और उन-उन ग्रहों की स्वयं की गति के कारण होता है। इसी तरह नक्षत्र मृगशिरा आदि ग्रीष्म ऋतु में रात्रि में जिस समय जिस जगह दिख रहे होते हैं, प्रतिदिन उसी समय ठीक उसी जगह नहीं दिखते अपितु अपनी पूर्वदिन की जगह से अगले दिन थोड़ा हटकर दिखाई देते हैं। इस प्रकार छ: माह बाद हेमन्त ऋतु में १२ घंटे के अंतराल पर दिखाई पड़ते हैं। उनमें हो रहा यह स्थान परिवर्तन पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण होता है।
तथ्य यह है कि ये तारे छोटे-छोटे नहीं अपितु हमारे सूर्य के समान बहुत बड़े-बड़े होने पर भी बहुत दूर होने के कारण छोटे-छोटे दिखाई देते हैं और सूर्य के समान प्रकाशमान होने पर भी मात्र टिमटिमाते हुए लगते हैं। अति दूरी पर होने पर भी पृथ्वी की चाल के क्रम से विपरीत चलते हुए दिखते हैं। जैसा कि वेद मंत्रों में आप ने स्पष्ट देखा कि पृथ्वी की द्विविध चाल है। अपनी धूरी पर दैनिक, और सूर्य की परिक्रमा करती हुई वार्षिक। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में हजारों हजार वर्ष पहले ऋषिओं ने जो सत्य देखा और लिखा, आज का विज्ञान भी वही कहता है।
पृथ्वी के एक बार पूरा घूम जाने में पूरे मध्य आकाश का जो मंडलाकार भाग आँखों के सामने से घूम जाता है, उसमें टिमटिमाते हुए तारों-नक्षत्रों का समूह पृथ्वी की निश्चित गति के विपरीत उसी गति में पूर्व से पश्चिम चलता हुआ दिखता है, और २४ घंटे बाद हर तारामंडल की पूर्णता पर अपने उसी स्थान पर पुनः होता है। इन टिमटिमाते तारों युक्त इस मध्य आकाश के पूर्ण मंडल को वेद मंत्र द्रष्टा ऋषियों ने नक्षत्र मंडल कहा है। इस पूरे नक्षत्र मण्डल को २७ समान भागों में इन तारों से बनने वाली काल्पनिक आकृतियों, कृत्तिका आदि २७ नामों से बाँटा गया है। पुनः इन नक्षत्रों के चार-चार छोटे-छोटे विभाग इनके चरण कहलाते हैं। इस प्रकार २७x४=१०८ नक्षत्र-चरणों का पूर्ण नक्षत्र मंडल या नभ मंडल होता है।इन्हीं १०८ चरणों के नक्षत्र मंडल की माला के भीतर पृथ्वी सहित सभी ग्रह घूम रहे है। इन १०८ चरणों से ही इन सभी ग्रहों की स्थिति एवं गति की गणना होती है। इसी की प्रतीकात्मक हमारी धारण की जाने वाली, गणना की और जप की माला भी १०८ दानों की होती है। क्योंकि धरती के साथ हम सभी भी इन १०८ नक्षत्र चरणों के भीतर चक्कर काट रहे हैं। कोई चाह कर भी इस माला के भीतर से बाहर नहीं जा सकता है। धरती की परिक्रमा करता हुआ चंद्रमा भी प्रतिदिन इन नक्षत्रों के बीच से जाता हुआ स्पष्ट दिखता है।
यहाँ नक्षत्र मंडल का २७ विभाजन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि २७ की संख्या सम नहीं है। वेदों में इस नक्षत्र मंडल का २७ नक्षत्रों में विभक्त होना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस विषम संख्या का वैदिक मधु माधव आदि आर्तव महीनों का इन २७ विभागों से कोई सम्बंध प्रतीत नहीं होता है। १२ महीनों की दृष्टि से नक्षत्रों पर सूर्य के दिखाई पड़ने के आधार पर यदि इन आर्तव मासों की रचना की जाती तो इस नक्षत्र मंडल के १२ विभाग किये गये होते जो बहुत ही आसान था। किन्तु इस प्रकार का सरल विभाग न करके अत्यन्त जटिल २७ विभाग करना निश्चित रूप से काफी मंथन कर किया गया प्रतीत होता है। वेदों में २८वें अभिजित् नक्षत्र का भी उल्लेख है, किन्तु गणना में वह २८वाँ नक्षत्र भी इन्हीं २७ नक्षत्रों के भीतर आ जाता है जिसका विस्तृत विवेचन अथर्ववेद में उल्लिखित नक्षत्रों के स्वरूप वर्णन के समय करेंगे। वेदों का अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट होता है कि, इन सभी नक्षत्रों का नामकरण और वर्गीकरण चन्द्रमा के साथ उनकी युति को लेकर किया गया है। इस सम्बंध में ऋग्वेद का यह मंत्र इस रहस्य से पर्दा उठाता हुआ दिखता है। देखें ये मंत्र...
"अथो नक्षत्रणानामेषामुपस्थे सोम अहितः ।"(ऋगवेद १०/८४/०२)
नक्षत्रों के उपस्थ में अच्छी तरह भली भाँति चन्द्रमा को स्थापित किया। इस नक्षत्र मंडल के २७ विभाग करने का रहस्य यह है कि इनमें से १२ नक्षत्रों पर चन्द्रमा की पूर्णिमा तिथियाँ जो इस विभाजन के समय सर्वप्रथम आयीं उनसे ही चंद्र पूर्णमास का नामकरण किया गया। वह इस प्रकार क्रमशः १ कृत्तिकापूर्णमासी, २ मृगशीर्ष पूर्णमासी, ३ पुष्य पूर्णमासी, ४ मघा पूर्णमासी, ५ फल्गुनी पूर्णमासी, ६ चित्रा पूर्णमासी ७ विशाखा पूर्णमासी, ८ ज्येष्ठा पूर्णमासी, ९ अषाढ़ा पूर्णमासी, १० श्रवण पूर्णमासी, ११ भाद्रपद पूर्णमासी, १२ अश्विन पूर्णमासी ।
ध्यान रहे वैदिक ग्रन्थों में जगह-जगह इन्हें चन्द्र पूर्णमास कहा गया है। जैसे— कृतिकापूर्णमासः, फल्गुनीपूर्णमासः, चित्रापूर्णमासः इत्यादि। बाद में मृगशीर्षपूर्णमास को आग्रहायण भी कहा गया है। जिससे लोकमान्य तिलक ने विषुव के बाद मृगशीर्ष नक्षत्र पर पूर्णिमा कब पड़ती थी इसकी गणना कर इसे लिखे जाने के काल का निर्धारण किया है। लेकिन यहाँ यह तथ्य विशेष रूप से ध्यातव्य है कि, वैदिक नक्षत्रों में पहला नाम कृतिका नक्षत्र का है। इसका मतलब यह हुआ कि जब यह चन्द्र नाक्षत्रमास व्यवस्था बनायी गयी तो विषुव के बाद पड़ने वाली प्रथम पूर्णिमा कृतिका पूर्णिमा ही होती थी।
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