ध्यान तत्व एवं रूप निदर्शन

img25
  • ज्योतिष विज्ञान
  • |
  • 31 October 2024
  • |
  • 0 Comments

प. अजय भाम्बी विश्वप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य ध्यान की संकल्पना पर चर्चा करने से पहले उन महापुरुषों का उल्लेख करना उचित होगा जिन्होंने इन वर्षों में ध्यान को एक चर्चित विषय बना दिया है। उनका जीवन गंगा, यमुना, सरस्वती और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों के समान है. जिनका उद्गम हिमालय से होता है और जो सागर में विलीन हो जाती हैं। ध्यान और ध्यान की विधियों पर चर्चा करने से पहले मेरे मानसपटल पर अनेक महापुरुषों का नाम कौंध जाता है। इनमें प्रमुख हैं. कृष्ण, बुद्ध, महावीर, पतंजलि, अष्टावक्र, नानक, जीसस, मोहम्मद और लाओत्से। इन सभी महापरुषों ने अपनी जीवन-यात्रा आम आदमी की तरह ही शुरू की, लेकिन अपनी ध्यानमय दृष्टि से वे ब्रह्मांड के देवताओं में रूपांतरित हो गए। ये ध्यानविधियाँ ही थीं जिनके कारण उनकी करुणा का स्तर ऊपर उठकर दैवीय स्तर पर पहुंच गया। हम मर्त्यलोक के प्राणियों के लिए यह जानना सुखद होगा कि इन सभी महापुरुषों ने हमारे लिए ध्यान की सरल विधियाँ विकसित की हैं ताकि भावी पीढ़ियाँ उनका अनुसरण करते हुए उन्हें सरलता से सीख सकें और कर्मचक्र से अपनेआपको हमेशा के लिए मुक्त कर सकें। यह बात विचित्र है और रहस्यपूर्ण भी कि इनमें से किसी योगी ने भी किसी दूसरे की विधि को नहीं अपनाया। वस्तुत: कुछ योगी तो दूसरे योगियों के अस्तित्व से भी अनभिज्ञ थे। तथापि हमारे पास अलग-अलग विधियाँ उपलब्ध हैं और हम इनमें से किसी विकल्प को भी चुन सकते हैं। पिछली कई शताब्दियों में और भी बहुत से लोगों ने ज्ञान का आलोक प्राप्त किया है, लेकिन यह विदित नहीं है कि उन्होंने किन विधियों को अपनाया। इसलिए हमारे मन में संदेह पैदा होता है कि क्या सचमुच कोई असली विधि है? यदि सचमुच कोई विधि असली होती। तो इतने लोगों द्वारा अलग-अलग विधियाँ विकसित करने की आवश्यकता न पड़ती। और यह मानना भी मुश्किल लगता है कि मात्र संयोग से इतनी विधियाँ कैसे विकसित हो गई। इन प्रश्नों से ध्यान और ध्यान की विधियों पर रहस्य का पर्दा पड़ जाता है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा का ही एक विशिष्ट रूप है। शरीर ग्रहण करने से पहले और शरीर के पंचतत्व में विलीन होने के बाद आत्मा ब्रह्मांड में ऐसे विलीन हो जाती है जैसे कभी उसका अलग अस्तित्व नहीं। जब आत्मा शरीर ग्रहण करती है तो अष्ट तत्व अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, बुद्धि और अहं इस ग्रह में महत्वपूर्ण रोल अदा करते हैं। मनुष्य में रूपांतरित होने वाली सभी आत्माओं के लिए यह एक विशिष्ट अनुभव होता है। यदि हम नदियों के उदाहरण को सामने रखें तो हम पाएँगे कि वे सब पहले एक ही हिमालय की अंग थीं। पर्वतमालाओं से निकलकर नदी के रूप में उनका अस्तित्व अलग हो जाता है, लेकिन हर नदी की अपनी विशिष्ट पहचान और यात्रा होती है। यात्रा की सुंदरता उनके व्यक्तिगत अनुभव में निहित है। किन्हीं दो नदियों का अनुभव समान नहीं होता। प्रत्येक नदी की अपनी यात्रा होती है और वह अपने रास्ते में पारिस्थितिकी (इकॉलॉजी), पर्यावरण और मानवता का संरक्षण और पोषण करती चलती है। इसी प्रकार ये भिन्न-भिन्न दैविक शक्तियाँ भिन्न-भिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न विचारधाराओं दर्शनों, धर्मों और विचारों के साथ मानवता की मदद भी करती चलती हैं ताकि मानव को कर्म के बंधन से मुक्ति मिल सके। ध्यान का रूप दुनिया मन के भीतर रहती है और मन का अस्तित्व चित्त में होता है। जब मन की लहरों का कंपन थम जाता है, तभी वह अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव कर पाता है, जिसे सच्चिदानंद भी कहा जाता है। यह लहर-रहित निश्चल स्थिति है। यह संश्लेषण की स्थिति है और यह स्थिति तब होती है जब अंतरिक्ष में व्यक्ति और ब्रह्मांड दोनों का समय और गति एक हो जाती है और यह निश्चलता या स्थिरता की स्थिति होती है। मनोविज्ञान में अस्तित्व की इस स्थिति को शून्य की स्थिति माना जाता है। शून्य की स्थिति की तुलना ब्रह्मा से की जाती है, जो चित्त या मूलभूत चेतना है। ध्यान क्रिया से संबद्ध कोई प्रक्रिया नहीं है। इसके विपरीत ध्यान करने के लिए आवश्यक है सभी क्रियाएँ निष्क्रिय हो जाएँ। ध्यानहीनता की स्थिति में मन विचारों और क्रियाओं से भरा होता है। ध्यान की स्थिति में शरीर, वाणी और विचार की सभी क्रियाएँ थम जाती हैं और मन की लहरियाँ निश्चल और शांत हो जाती हैं। मन की इस स्थिति को ही ध्यान कहा जाता है। ध्यान के सभी प्रकार के अभ्यास शरीर और मन को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से किये जाते हैं, लेकिन जब मन ध्यान अवस्था में आ जाता है तो यह स्वतः ही होने लगता है। जिस क्षण व्यक्ति कुछ करने की सोचता है या कुछ करने लगता है तो मन सक्रिय हो जाता है और यहीं पर गड़बड़ हो जाती है। एक तरह से ध्यान कछ न करने की प्रक्रिया है; जब मनुष्य सभी प्रकार के विचारों को छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है और मन के पार चला जाता है तभी ध्यान की अवस्था प्राप्त की जा सकती है। मनुष्य की समस्या यही है कि वह केवल क्रिया की भाषा ही समझता है, क्योंकि उसकी दुनिया में बिना कुछ किये कुछ भी हासिल नहीं  किया जा सकता। मनुष्य को लगता है कि उसकी उपलब्धियों का कारण क्रिया ही है, इसलिए परमात्मा को भी कुछ न कुछ करके ही खोजा जा सकता है। वस्तुतः यह केवल ध्यान ही है जिसके माध्यम से आत्मा (परमात्मा) को, जो हमारे भीतर हमेशा ही विद्यमान रहता है, पाया जा सकता है। उसे खोजने का कोई उपाय ही नहीं है क्योंकि वह (परमात्मा) आत्मा में ही है। जिस क्षण मनुष्य का मन निश्चल होता है और उसकी लहरियाँ थम जाती हैं, वह ध्यान अवस्था में पहुँच जाता है और ध्यानातीत हो जाता है। यही ध्यान है। दुनिया में बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जो मनुष्य के हाथों से संपन्न नहीं होतीं। ये तभी होती हैं। जब अस्तित्व की कामना उन्हें करने की होती है या वे उसके द्वारा नियंत्रित होती हैं। मनुष्य न तो उन्हें करने में सक्षम होता है और न ही उसका उन पर कोई नियंत्रण होता है। वह इन क्रियाओं को होने से रोक भी नहीं सकता। जैसे साँस लेने की क्रिया होती है। इसी प्रकार भूख या नींद, जीवन और मृत्यु, प्रेम और आँसुओं पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं होता। ये सभी क्रियाएँ सिर्फ़ होती रहती हैं। इसी प्रकार सही वातावरण मिलने पर ध्यान होता है। ध्यान का विचार बाधा उत्पन्न करता है। परंतु जब ध्यान होता है मनुष्य भारहीन हो जाता है और वह इसे अनुभव भी करता है। इसलिए इसकी कोई बनी-बनाई परिभाषा नहीं है। एक प्रकार से यह अकर्म की क्रिया है, लेकिन आपको इसके प्रति पूरी तरह से सचेत रहना होगा। मनुष्य के साथ मुश्किल यह है कि वह हर बात को अपनी परिभाषाओं के दायरे में बाँधना चाहता है।



Related Posts

img
  • ज्योतिष विज्ञान
  • |
  • 12 March 2025
मंत्र – साफल्य दिवस : होली

0 Comments

Comments are not available.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Post Comment