कर्मलोप का प्रायश्चित्त

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  • धर्म-पथ
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  • 10 April 2025
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संध्या कर्म के निश्चित काल का लोप हो जाने पर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है, फिर कर्म का लोप होने पर तो कहना ही क्या है। कर्म का लोप तो कभी होना ही नहीं चाहिये। यदि कभी हो गया तो उसका स्मृति के अनुसार प्रायश्चित्त कर लेना उचित है। प्रायश्चित्त के विषय में जमदग्निका मत इस प्रकार है- यदि प्रमादवश एक दिन संध्याकर्म नहीं किया गया तो उसके लिये एक दिन-रात का उपवास करके दस हजार गायत्री का जप करना चाहिये। शौनकमुनि तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि किसी के द्वारा प्रमादवश सात रात तक संध्या-कर्म का उल्लङ्घन हो जाय अथवा जो उन्माद-दोष से दूषित हुआ रहा हो, उस द्विज का पुनः उपनयन-संस्कार करना चाहिये। यदि निम्नाङ्कित कारणों से विवश होकर कभी संध्याकर्म न बन सका तो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। राष्ट्र का ध्वंस हो रहा हो, राजा के चित्त में क्षोभ हुआ हो अथवा अपना शरीर ही रोगग्रस्त हो जाय या जनन-मरणरूप अशौच प्राप्त हो जाय - इन कारणों से संध्याकर्म में बाधा पड़े तो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं है।

परंतु ऐसे समय में भी मन-ही-मन मन्त्रों का उच्चारण करके यथासम्भव कर्म करना आवश्यक है। अभिप्राय यह कि मानसिक संध्या कर लेनी चाहिये। संध्या नित्यकर्म है, अतः उसका अनुष्ठान जैसे भी हो, होना ही चाहिये। अकारण उसका त्याग किसी भी तरह से क्षम्य नहीं है। यदि परदेश में यात्रा करने पर किसी समय प्रातः सायं या मध्याह्न-संध्या नहीं बन पड़ी तो पूर्वकाल के उल्लङ्घन का प्रायश्चित्त अगले समय की संध्या में पहले करके फिर उस समय का कर्म आरम्भ करना चाहिये। दिन में प्रमादवश लुप्त हुए दैनिक कृत्य का अनुष्ठान उसी दिन की रात के पहले पहर तक अवश्य कर लेना चाहिये।
डॉ दीनदयाल मणि त्रिपाठी प्रबंध संपादक
 



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abc
Yash vardhan 11 April 2025

Radha Radha

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