प्राकाम्य सिद्धि

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  • तंत्र शास्त्र
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  • 31 October 2024
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श्री सुशील जालान mystic power- आद्या शक्ति चैतन्य स्वरूप भगवती अन्नपूर्णा अनंत ब्रह्माण्ड नायिका है, प्राकाम्य महासिद्धि इसका विलास है, क्रीड़ा क्षेत्र है।सर्वकामना सिद्धि,  वेदविहित वा सामाजिक, स्वयं के लिए वा किसी भी अन्य के लिए, सर्वकाल में, सर्वस्थान में, सर्वलोक में, सर्वजीव के लिए, संभव है प्राकाम्य महासिद्धि के उपयोग से। आगम, निगम, यामल, शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर, गाणपत्य अथवा कोई भी अन्य आध्यात्मिक, धार्मिक, वैचारिक विधा हो, मानव सभ्यता के किसी भी कालखंड की, भूत, वर्तमान या भविष्य की हो, भूलोक के किसी भी स्थान की हो, सभी चैतन्य प्राकाम्य महासिद्धि के अंतर्गत हैं। भूलोक, सौरमंडल, आकाशगंगा अथवा इस ब्रह्माण्ड की असंख्य निहारिकाओं में चैतन्य ब्रह्म स्वरूप ध्यान-योगी की गति होती है प्राकाम्य से। यही नहीं, अनंत ब्रह्माण्ड हैं, नित्य उत्पन्न होते हैं, कुछ काल तक स्थित होते हैं और लोप हो जाते हैं। चैतन्य तत्त्व इन सभी ब्रह्माण्डों का आत्मा है, स्वामी है, प्राकाम्य साधन है इनके बोध व इनमें रमण हेतु। चैतन्य बोध सहस्रार में होता है ध्यान-योगी को और इस परम् ब्रह्म स्वरूप चैतन्य तत्त्व को धारण कर किसी भी ब्रह्माण्ड में, किसी भी निहारिका में, किसी भी सौरमंडल में, किसी भी ग्रह पर, किसी भी जीव योनि में, पंचमहाभूतों में, गमन करने की सामर्थ्य प्राप्त करता है सक्षम ध्यान-योगी ब्रह्मात्मा प्राकाम्य महासिद्धि से। यह परम् ब्रह्मऋषियों का विलास है।   प्राकाम्य, पदच्छेद है,‌ प्रा + काम्य, प्रा, अर्थात् परा शक्ति, प्,  है पूर्णता के संदर्भ में, र्,  है अग्नितत्त्व, मणिपुर चक्र में स्थित कूट बीज वर्ण, आ,  है दीर्घ काल/अनंत में स्थित। अर्थ हुआ, -  वह अग्नितत्त्व नाभिस्थ मणिपुर चक्र में स्थित है जिसमें सबकुछ समाहित है अनादि अनंत काल से, जो अपने आप में पूर्ण है, परम् ईश्वर की परा शक्ति विशेष है।   काम्य, अर्थात् कामना करने योग्य, पदच्छेद है, का (क् + आ) + म् + य (य् + अ)   -  क्,  है प्रथम व्यंजन, शब्द ब्रह्म का प्रारंभ, ख् (आकाश तत्त्व) के रूप में भी उपयोग किया जाता है, आ, है दीर्घ काल/अनंत तक, -  म्,  है महर्लोक, अनाहत चक्र, -  य्,  है वायु तत्त्व, इकार में परिवर्तित, कामना हेतु, अ, है  स्थायित्व के लिए।   अर्थ हुआ, वायु तत्त्व से इच्छा, अर्थात् प्राण वायु सिद्धि/केवल-कुंभक प्राणायाम से हृदयस्थ महर्लोक में की गई कामना दीर्घ काल वा अनंत के किसी भी काल खंड में स्थित की जा सकती है।   प्राकाम्य का पूर्ण अर्थ हुआ, प्राकाम्य महासिद्धि मणिपुर चक्र का अग्नि तत्त्व विशेष है जिसका उपयोग हृदयस्थ अनाहत चक्र में किया जाता है किसी भी कामना के लिए जो फलीभूत होती है किसी भी कालखंड में, किसी भी स्थान पर और जो किसी भी जीव अथवा पदार्थ से संबंधित हो।   यह संभव होता है जब महर्लोक से ऊर्ध्व जनर्लोक के आकाश तत्त्व में, शब्दब्रह्म के रूप में प्रण किया जाता है और प्रेषित किया जाता है निर्दिष्ट स्थान पर, निर्दिष्ट काल के लिए, निर्दिष्ट पात्र, जीव या पदार्थ, के लिए।   इसी प्राकाम्य महासिद्धि का उपयोग चैतन्य तत्त्व धारण कर सहस्रार - आज्ञा चक्र में भी किया जाता है। यही पूर्णा शक्ति विशेष है परम् पुरुष ध्यान-योगी ब्रह्मात्मा की।   भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने ‌गुरु महर्षि संदीपन के कई वर्ष पूर्व में दिवंगत हुए पुत्र को पुनर्जीवित कर प्रदान किया गुरु दक्षिणा के लिए, प्राकाम्य महासिद्धि के उपयोग से।   श्रीराधा परम् शक्ति विशेष है, चैतन्य तत्त्व है, जिससे ओतप्रोत हैं भगवान् श्रीकृष्ण। श्रीराधा को परम् रस स्वरूप भी माना गया है।   परम् रस, अर्थात् परम् + रस, पदच्छेद है, र (र् + अ) + स (स् + अ),   परम् है चैतन्य तत्त्व सहस्रार में, र्,  है अग्नि तत्त्व मणिपुर चक्र का कूट बीज वर्ण, अ,  है स्थिर करने के लिए, स्,  है धारण करने के संदर्भ में, अ,  है स्थिर करने के लिए,   अर्थ हुआ, यह मणिपुर चक्र का अग्नि तत्त्व ही चैतन्य स्वरूप है सहस्रार में, बीज है प्राकाम्य महासिद्धि का, जिसे धारण करते हैं भगवान् श्रीकृष्ण, जिसकी संज्ञा है श्रीराधा।   सहस्रार में स्थित इस परम् पूर्णा शक्ति चैतन्य तत्त्व के लिए बृहदारण्यक उपनिषद् (5.1.1) कहता है,       ‌"पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।                 पूर्णस्य पूर्णमादाय  पूर्णमेवावशिष्यते॥" अर्थात्, यह पूर्ण है, इस पूर्ण से पूर्ण ही प्रकट होता है और अवशिष्ट भी पूर्ण ही रहता है।   पूर्ण का न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत। न कोई स्थान है, न कोई काल है, न ही कोई पात्र है। जो सक्षम ध्यान-योगी सहस्रार में आत्मचेतना स्थिर करता है दीर्घ काल तक, वह परम् ब्रह्म/ परम् शिव की पूर्णा शक्ति का स्वामी है, चैतन्य तत्त्व धारण कर शब्दब्रह्म का उपयोग करने की सामर्थ्य प्राप्त करता है, किसी भी ब्रह्माण्ड में, किसी भी स्थान, काल व पात्र के लिए।   वैदिक सभ्यता की अत्युत्तम विधा है यह प्राकाम्य महासिद्धि, सर्वकालिक है, सार्वभौमिक है, सर्वश्रेष्ठ है। अन्य सभी सिद्धियां इस एक प्राकाम्य महासिद्धि के अनुगत हैं। सभी दिव्य अस्त्रों के, सिद्धियां के, प्रयोग का मोचन भी प्राकाम्य महासिद्धि से किया जा सकता है।   भगवान् श्रीकृष्ण ने अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे भ्रूण परीक्षित को अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से बचाया था महाभारत युद्ध के अंत में, चैतन्य तत्त्व में प्राकाम्य महासिद्धि को धारण कर, ढाल की तरह इसके उपयोग से।  



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