आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र (प्रशासनिक सेवा) वेदाचार्य ज्योतिषाचार्य आयुर्वेदरत्न ऋषि वशिष्ठ के अनुसार ये सातों तंत्रजाल अनुलोम-विलोम भेद से धरती के ऊपर के 7-भू, भुवः, स्वः, महः, तप, जन और सत्य लोक तथा नीचे के सात-अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल, के मार्गी और वक्री भेद से समस्त ग्रहों, अभिचार, दैहिक, दैविक एवं भौतिक व्याधियों का नाश करते हैं. दुःख, दारिद्रय, रोग, शोक, भय, बंधन, बाँझपन और चिन्ता इनके धारण से दूर हो जाता है. दाम्पत्य जीवन के कष्ट मिट जाते हैं. जब जगज्जननी महामाया भुवनेश्वरी के मोह से चराचर समेत समस्त देवी देवता मूर्च्छित हो गये थे. चारो तरफ अंधकार घनघोर रूप से छाया हुआ था. सूर्य, चन्द्रमा और तारे कहीं लुप्त हो गये थे. समस्त ब्रह्माण्ड शक्तिहीन और श्रीहीन हो चुका था. तब शक्तिपुञ्ज महामाया भुवनेश्वरी के ललाट से पांच मुख और दश भुजा युक्त अत्यंत देदीव्यमान विशालकाय जटाजूटधारी हाथ में धनुष, तलवार और त्रिशूल तथा शङ्ख लिये एक प्रलयंकारी आकृति उत्पन्न हुई. और माता भुवनेश्वरी के सम्मुख नतमस्तक होकर बोली- किं लये कर्त्तुम शक्नोम्यहम? अर्थात इस लय हुए अवसर पर मैं क्या अच्छा कर सकता हूँ? मातारानी बोली- हृतं तद समुच्चय। अर्थात निकृष्टता के द्वारा अपहृत तथा बिखरे को संकलित करो. किं लयं तथा हृतं शब्द के उच्चारण से समस्त ब्रह्माण्ड चलायमान हो गया। लय शब्द का किं में लय होकर #क्लीं तथा हृतं शब्द का तँ तदुत्पन्नः विधि से लुप्त (इत संज्ञक) होकर ह्रीँ बनता चला गया. जो मातारानी के प्रणव (ॐ) युक्त बीज मन्त्र बना. यही मन्त्र अन्य नाद उत्पन्न बीजों से नवार्ण मन्त्र बन गया. ध्यान रहे, समय, स्थान और परिमण्डल भौतिकी के आधार पर जिन वर्णों या उनके समूहों का जो प्रभाव निश्चल एवं स्थाई रूप से प्राप्त होता गया, वे बीज बनते चले गये. जिनका अनुभव अनेक प्रकार से विभिन्न अवसरों पर करने के पश्चात त्रिकालदर्शी ऋषि-मुनि इनके जाप-पाठ में निरत होकर विविध उपलब्धियां प्राप्त किये। इसलिये इन बीजमंत्रों में व्याकरण का कोई स्थान नहीं है. क्योंकि ये नाद विपार्जित हैं. इस नवार्ण मन्त्र में 6 पठार हैं- 1- प्रणव (ॐकार), 2- ऐं, ३- ह्रीँ, 4- क्लीं, 5- चामुण्डायै, 6- विच्चै। सातवां पठार पुनः प्रणव (ॐ) ही प्राप्त हुआ जिससे वह विकराल पुरुष वापस हो गया. और ध्वनि के अनुकरण में पुनः 6 पठार घूम दिया। और अंत में पुनः प्रणव (ॐ) पर स्थिर हो गया. अनुलोम-विलोम से ये 14 मन्त्र ही उस विकराल पुरुष ने शिव के रूप में अपने वाद्य यंत्र से निःसृजित किया। जिसकी देन वर्तमान व्याकरण पद्धति है. इस प्रकार इन ठोस अनुभव प्राप्त बीजों से व्याकरण की उत्पत्ति है. न कि व्याकरण से बीज मन्त्रों की. प्रत्येक मन्त्र से स्थूल जाल या संयंत्र बना जिसे शिवतंत्र जाल के रूप में जाना जाता है. और जिसे धारण कर विविध कष्टों, दुःख, हानि, विपदा, संकट आदि का नाश किया जाता है. इनके नाम हैं- 1- नीलकण्ठ, 2- हरिच्छमश्रु , 3- शशाङ्काङ्कित, 4- मूर्द्धज, 5- त्र्यक्षस्त्रिशूलपाणि, 6- वृषयान और 7वां पिनाकधृक। यद्यपि ये भगवान् शिव के नाम हैं जो उपर्युक्त विविध अस्त्रों- तंत्रों के धारण करने के बाद बने. ज़रा वायुपुराण की निम्न पंक्तियों पर ध्यान दें- #शमयत्यशुभं घोरं दुःस्वप्नं चापकर्षति। स्त्रीषु वल्लभतां याति सभायां पार्थिवस्य च. विवादे जयमाप्नोति युद्धे शूरत्वमेव च. गच्छतः क्षेममध्वानं गृहे च नित्य सम्पदः। शरीर भेदे वक्ष्यामि गतिं तस्य वरानने। नीलकण्ठो हरिच्छमश्रुः शशाङ्काङ्कितमूर्द्धजः। त्र्यक्षस्त्रिशूलपाणिश्च वृषयानः पिनाकधृक. नन्दितुल्य बलःश्रीमान्नन्दितुल्य बलः. श्रीमान्नन्दित तुल्य पराक्रमः। विचरत्यचिरात्सर्वान सर्वलोकान्ममाज्ञया। न हन्यते गतिस्तस्य अनिलस्य यथम्बरे। मम तुल्य बलों भूत्वा तिष्ठत्याभूतसंप्लवं। वायुपुराण अध्याय 54 श्लोक 105 से 108. पुराण के इस कथन को ध्यान से देखें। इसमें अंतर्मन या आत्मा से धारण करने को नहीं कहा है, बल्कि शरीर पर धारण करने को कहा है. —#शरीर भेदे वक्ष्यामि। इसके जाप या हृदय से धारण करने का कोई आदेश कथन में नहीं है. ये नाम संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों या रहस्य में हैं. इन्हें व्यावहारिक रूप में निम्न नामों से जाना जाता है- 1- नीलकण्ठ,–#ॐ या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा—-मन्त्र से रिक्तक गाँठ से बनी भद्राक्ष की माला 2- हरिच्छमश्रु–#ॐ पृष्ठं वा रुद्रं प्रज्वल दधीत—मन्त्र से मरीच गाँठ से बनी भद्राक्ष की माला 3- शशाङ्काङ्कित- काला चमकदार शिवकोटि पत्थर 4- मूर्द्धज- तिल के बीज से बनी भस्म की गोली 5- त्र्यक्षस्त्रिशूलपाणि- पीतल, ताम्बा या बरकोटा का त्रिशूल 6- वृषयान- गाय का खुर 7- पिनाक धृक- श्यामशिला या कालापत्थर –जतूरिया पत्थर —इनके धारण करने से प्राप्त होने वाले लाभ को भी उपरोक्त पुराण वर्णित श्लोकों में दिया गया है– 1-नीलकण्ठ- कुष्ठ, क्षय एवं अन्य चर्मरोग, दाम्पत्य जीवन का बिखराव तथा पितृदोष 2-हरिच्छमश्रु- लकवा, अंगहीनता, अस्थिक्षय एवं कुलदोष 3-शशाङ्काङ्कित- अर्बुद, योनि संक्रमण, भूत-प्रेत बाधा तथा शनि कृत दोष 4- मूर्द्धज- हृदयरोग, रक्त रोग एवं संतानहीनता के अलावा वैधव्य दोष परिहार तथा गुरु-मंगल कृत दोष 5- त्र्यक्षस्त्रिशूलपाणि- मानसिक व्याधि, मृगी, पागलपन, मूर्च्छा, देवदोष आदि 6- वृषयान- ग्रहदोष, वास्तुदोष, पारिवारिक क्षय तथा नजर-जादू-टोना अदि अभिचार निवारण हेतु। 7- पिनाकधृक- मूल आदि नक्षत्रदोष, आर्थिक कष्ट, देवदोष, मंगल-शनि तथा मंगल-राहु कृत दोष निवारण हेतु।
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