शिव रूप काशी क्षेत्र

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  • 31 October 2024
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अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)- काशी क्षेत्र तथा ३ नदियों के रूप में शंकराचार्य ने शिव-शक्ति की स्तुति की है- पवित्री कर्तुं नः पशुपति पराधीन हृदये, दयामित्रै-र्नेत्रै-ररुण धवल श्याम रुचिभिः। नदः शोणो गङ्गा तपन-तनयेति ध्रुवममु (मयं), त्रयाणां तीर्थानामुपनयसि संभेदमनघम्॥ (सौन्दर्य लहरी, ५४) = पशुपति शंकर भगवान् ली पराधीनता में हृदय समर्पण करने वाली हे भगवती! अरुण, शुक्ल, श्याम वर्णों की शोभा से युक्त दया पूर्ण अपने नेत्रों से शोण नद, गंगा और सूर्य-तनया (यमुना)-इन तीर्थों के सदृश निश्चय ही हम लोगों को पवित्र करने के लिए तू पवित्र संगम बना रही है। प्राचीन काशी क्षेत्र की पश्चिम सीमा प्रयाग में गंगा-यमुना (तथा लुप्त सरस्वती) संगम, पूर्व में गंगा-शोण संगम है। स्वयं काशी त्रिकण्टक (३ दुर्गों से घिरी) है-गंगा, वरुणा, असि (कृत्रिम दुर्ग)। मस्तिष्क के भीतर भी इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना का मिलन त्रिकूट कहते हैं जिस पर शिव-शक्ति विराजमान हैं-आज्ञा चक्र के २ दल। हिमालय का कैलास भी शिव स्थान है, जहां से ३ नदियों का उद्गम है-सिन्धु नद, गंगा, ब्रह्मपुत्र। इनका जल ग्रहण क्षेत्र ३ विटप हैं, जिसे मिलाकर त्रिविष्टप (तिब्बत) या स्वर्ग बना है। गंगा के उत्तर में गण्डक से पश्चिम काशी शिव का तथा पूर्व में मिथिला शक्ति स्थान है। दोनों मिल कर हर हैं। गंगा के दक्षिण, शोण के पूर्व मगध विष्णु (हरि) क्षेत्र है, जहां विष्णुपद (गया) तीर्थ है। तीनों का संगम हरिहर क्षेत्र हजारों वर्षों से ३ भाषाओं का संगम है-भोजपुरी, मैथिली, मगही। लोग आते जाते रहे, पर भाषा क्षेत्र नहीं बदले। शिव सम्बन्धित प्रायः ५- वैदिक शब्द केवल काशी की भोजपुरी में हैं, शक्ति तथा अथर्व वेद के कृषि (३/१७) और दर्भ सूक्तों (१९/२८-३०,३२-३३) के शब्द मैथिली में हैं। एक परब्रह्म सृष्टि के लिए २ विपरीत रूपों में विभक्त होता है जिसे पुरुष-प्रकृति, अग्नि-सोम, शिव-शक्ति कहा गया है। इसे अज (ब्रह्म) तथा अजा ( प्रकृति) भी कहा है, जिसके ३ गुण-सत्त्व, रज, तम को ३ रंग कहा गया है-शुक्ल, लोहित, कृष्ण। अजामेकां लोहित शुक्ल कृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते, जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥५॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ४/५, ऋग्वेद, १/१६४/२०, अथर्व, ९/१४/२०) = ३ गुणों की प्रकृति (३ रंगों की अजा) से बहुत सी प्रजा हुई। अज (पुरुष, ब्रह्म) भोगों तथा कर्मों को छोड़ देता है। इसी मन्त्र से वाचस्पति मिश्र ने सांख्य दर्शन की व्याख्या आरम्भ की है- अजामेकां लोहित-शुक्ल-कृष्णां, बह्वीः प्रजाः सृजमानां नमामः। अजा ये तां जुषमाणां भजन्ते, जहात्येनां भुक्तभोगां नुमस्तान्॥



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