परमहंस सत्यानन्द सरस्वती- तन्त्र षड्दर्शनों में नहीं आता । दर्शनों का आधार है तर्क और बुद्धि | वे जगत को माया के रूप में तथा ईश्वर को वास्तविक सत्य के रूप में मानते हैं । कहते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति के बाद मनुष्य के दु:खों का अंत हो जाता है, लेकिन तन्त्रशास्त्र कहता है कि जीवन को जीते समय तत्काल के जो अनुभव हो रहे हैं, चाहे वे नकारात्मक ही क्यों न हों, उन्हें सोपानाधार के रूप में स्वीकार करना चाहिये | अगर जीवन में बुराई भी है, तो आगे बढ़ने के लिये उस बुराई का सहारा लेना चाहिये | जीवन का ऐसा कोई भी पक्ष नहीं है, जिसका सृष्टि में कोई महत्व नहीं हो, कोई स्थान या पहचान नहीं हो | अगर मनुष्य में तामसिकता प्रबल है, तो वही उसकी पहचान है, वहीं से उसे आगे बढ़ना है । अगर व्यक्ति भोगी है, तो उसी धरातल से ऊपर उठना है । चेतना के विस्तार से मनुष्य स्वयं को पहचानने लगता है, स्वयं की परिस्थिति को जानकर, समझ कर वह ऊपर उठने का प्रयल कर सकता है। तन्त्र की श्रेणियाँ तन्त्र शास्त्र के प्रणेता भगवान शिव माने गये हैं । तन्त्र शास्त्र के ग्रन्थ शिव और पार्वती के बीच के संवाद के रूप में प्रस्तुत होते हैं । वैसे तो तन्त्र की तीन मुख्य श्रेणियाँ हैं । एक हैं वैष्णव तन्त्र जिन्हें संहिता की संज्ञा मिली है । दूसरे हैं शैव तन्त्र जिनको आगम के नाम से जाना जाता है और तीसरे हैं शाक्त तन्त्र जिन्हें निगम कहते हैं । “ईशान गुरुदेव पद्धति” नामक ग्रन्थ में बतलाया गया है कि तन्त्र पद्धति को छः प्रकार से समझा जा सकता है । ये वस्तुतः तन्त्र की छः विचार धाराएँ हैं - पशु - जो जीवात्मा है। पाश - जो बन्धन हैं। पति - जो देवता है। शक्ति - जिसके द्वारा कार्य सम्पन्न होता है। विचारशक्ति - जिसके द्वारा हम इनकी क्रिया, सिद्धांत या दर्शन को समझते हैं । क्रियाचार - जिसके द्वारा साधना मार्ग में आगे बढ़ने की विधियाँ सीखते हैं। वैष्णव, शैव और शाक्त तन्त्रों के सिद्धांतों को इन्हीं छः विचारधाराओं के आधार पर समझाया जाता है। पंचवक्त्र शिव जिस भगवान को तन्त्रशास्त्र का प्रणेता माना जाता है, वे पंचानन शिव हैं । उन्हें पंचवक्त्र या पंचमुखी शंकर भी कहते हैं । इनके पाँच मुखों से ही तन्त्रविद्या का विस्तार हुआ है । ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने एक मुख से अदैततन्त्र की तथा दो मुखों से द्वैत-अदैक्तन्त्र की परिभाषाएँ दी थीं। उनके जितने भी मुख हैं उन सबके अलग-अलग नाम हैं | एक मुख का नाम है “ईशान”, जिसका अर्थ होता है चित्तशक्ति या चेतना । दूसरे मुख का नाम है “तल्युरुष', जिसका सम्बन्ध आनन्द की अनुभूति से है । तीसरे मुख का नाम है “सवोज्योति” तथा इसका सम्बन्ध ज्ञान से है | चौथे मुख का नाम “वामदेव” है, जो इच्छा से सम्बन्धित है और पाँचवाँ मुख है “अघोर”, जो क्रिया से सम्बन्धित है | इस प्रकार भगवान शंकर के ये पाँच मुख भिन्न-भिन्न अनुभूतियों या अवस्थाओं के परिचायक हैं । इन्हीं से द्वैत, द्वैताद्वत और अद्वैत तन्त्रशास्त्र की उत्पत्ति होती है। आगम, निगम और वैष्णव तन्त्र सर्वप्रथम दस आगम तन्त्रों की चर्चा होती है । इन दस आगमों से अठारह ग्रन्थ उल्लघन होते हैं, जिन्हें रौद्रागम कहा जाता है । इन अठारह रौद्रागमों से चौंसठ तन्त्र उत्पन्न होते हैं, जो आज प्रचलित हैं । इन चौंसठ तन्त्रों का पारम्परिक नाम है “भैरव आगम” । इस प्रकार कुल बानवे आगम हो गये : दस शैव आगम, अठारह रौद्रआगम और चौंसठ भैरव आगम । यहाँ बानवे विचारधाराएँ दिखलाई देती हैं और इन्हीं विचारधाराओं को सम्पूर्ण तन्त्र शास्त्र में वैष्णब, शैव और शाक्त तंत्रों में विभाजित किया गया है । आगम ग्रन्थों में शिव गुरु और पार्वती शिष्या हैं । निगम ग्रन्थों में शक्ति गुरु और शिव शिष्य हैं | निगम या शाक्त ग्रन्थ या शाक्त तन्त्र दस हैं, जिन्हें दस महाविद्या भी कहते हैं, यथा- षोडशी तन्त्र या षोडशी विद्या; मातंगिनी तन्त्र या मातंगिनी विद्या; छिनमस्ता तन्त्र या छिनमस्ता विद्या; आदि । दस के नाम हैं - काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिनमस्ता, धूमावती, वगलामुखी, मातंगी और कमला । इसके बाद वैष्णव तन्त्र आते हैं, जिनकी संख्या अज्ञात है । वैष्णव तन्त्र में नारायण और शिव का संवाद है | इनमें कहीं पर नारायण गुरु है, तो कहीं पर शिव गुरु हैं । इनकी संख्या के सम्बन्ध में मतभेद हैं, उनकी संख्या की सही जानकारी संभवतः किसी को भी नहीं है | एक मान्यता यह भी है कि वैष्णव तन्त्र के मूल ग्रन्थ प्रचलित नहीं रहने के कारण लुप्त हो गये हैं । सदागम और असदागम तन्त्र शास्त्र की पद्धति को दो भागों में विभाजित किया गया है : सदागम (सत् आगम) और असदागम (असत् आगम) । इन पद्धतियों को सत् आगम और असत् आगम में वर्गीकृत क्यों किया गया है ? इसका कारण है कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये जब किसी ऐसी साधना पद्धति को अपनाया जाता है, जो तन्त्र परम्परा और सिद्धांत के अनुरूप हो, तो वह सत् आगम कहलाता है | जो भी आचार संहिता,उपासना पद्धति या साधना पद्धति तन्त्रशास्त्र के अनुकूल है, वह सत् आगम में आती है, लेकिन यदि व्यक्ति विशेष को देखकर गुरु किसी इतर साधना का निर्देश देते हैं जो शास्त्र में लिखा नहीं है, किन्तु मान्य है, तो इसे असत् आगम कहते हैं | जो परम्परा या शास्त्र में उल्लिखित नहीं है, लेकिन साधना हेतु गुरु द्वारा प्रदत्त है, वह असत् आगम है। इससे स्पष्ट होता है कि सत् आगम है शास्त्रीय पद्धति और असत् आगम है व्यक्तिसापेक्ष पद्धति | साधनात्मक विभाजन सम्पूर्ण तन्त्र समुदाय को साधना के अनुसार तीन भागों में विभक्त किया गया है- १. दक्षिण मार्ग, २. वाम मार्ग और ३. मध्यम मार्ग | दक्षिण सात्विक साधना का मार्ग है। इसमें साधक स्वयं को माध्यम, लक्ष्य या देवता बनाता है। योग दक्षिण मार्ग का अंग है। साधना की दूसरी पद्धति है, वाममार्ग जिसकी साधना शक्ति या शक्ति के मातृरूप से सम्बन्धित है । मध्यम मार्ग दोनों मार्गों का मिश्रण है | दक्षिण और वाममार्गों को क्रमशः दिव्य और कौलमार्ग भी कहते हैं | कौलमार्ग को कौलमत या कौलाचार भी कहते हैं, जो वाममार्ग की व्यापक साधना-पद्धति के अंतर्गत आता है । दक्षिण, वाम और मध्यम मार्गों को क्रमशः दिव्य, कौल और मध्यम मार्ग भी कहते हैं। विषय-वस्तु के अनुसार भी तन्त्र ग्रन्थों का वर्गीकरण : १. आगम, २. डामर, ३. यामल और ४. निगम या शाक्त तन्त्र के रूप में किया गया है | सृष्टि, प्रलय, षट्कर्म, उपासना, अर्चना, पुरश्चरण और ध्यानादि क्रियाओं, विधियों और सिद्धान्तों का वर्णन जिनमें किया गया है, वे हैं आगम ग्रन्थ । डामर का अर्थ है उत्तेजित होना । इसके अंतर्गत छः प्रकार के तन्त्रों का उल्लेख मिलता है : १. योग तन्त्र, २. शिवतत्त्व तन्त्र, ३. दुर्गा तन्त्र, ४. सारस्वत तन्त्र, ५. ब्रह्मा तन्त्र और ६. गान्धर्व तन्त्र | इनकी पद्धतियों का सम्बन्ध नाद, मन्त्र, क्रिया तथा सामाजिक और व्यक्तिगत साधना के नियमों से रहता है, जिन्हें यम और नियम के नाम से जानते हैं। यामल ग्रन्थ समूह में भी छः प्रकार के यामल होते हैं : १. ब्रह्मा यामल, २. विष्णु यामल, ३. रुद्र यामल, ४. गणेश यामल, ५. रयि यामल और ६. आदित्य यामत्र | यामल शब्द का अर्थ होता है दो को जोड़ना या एक करना । इन ग्रन्थों में ज्योतिष, नित्यकर्म, आराधना, उपासना, युगधर्म, वर्णभेद और जातिभेद की चर्चा की गई है । शाक्त तन्त्रों या निगम ग्रन्थों के विषय काफी व्यापक हैं । इनमें राजधर्म, युगधर्म, वर्ण-व्यवस्था, जातिभेद, सर्ग, उपसर्ग, सृष्टि, प्रलय इत्यादि की चर्चा की गई है । इनमें ज्योतिष, यन्त्र-निर्णय और यन्त्र-आकृति आदि भी सम्मिलित हैं । इनमें मातृ-शक्ति के अनेक यत्तरों की साधना पद्धति भी समझायी गई है।
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