श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)
Mystic Power- १. नवार्ण मन्त्र- इसमें कई एकाक्षर मन्त्र हैं-
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
इसके ९ अक्षर नव-दुर्गा के प्रतीक हैं। झ नवम व्यञ्जन है, आर्यभट या कटपयादि कूट संख्या पद्धति के अनुसार, झ = ९। अतः नव दुर्गा के उपासक को 'झा' कहते हैं। पता नहीं क्यों, झा उपाधि केवल मिथिला में ही प्रचलित है।
अव्यक्त ब्रह्म प्रकृति द्वारा सृष्टि करता है, जिसके ९ सर्ग के प्रतीक ९ दुर्गा हैं।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् (गीता, ९/१०)
प्रकृति ३ गुणों-सत्त्व, रज, तम- द्वारा सृष्टि करती है। मूल प्रकृति अव्यक्त है जिसमें तीनों गुण साम्य अवस्था में हैं। इसके अनुसार चण्डी पाठ के प्रथम चरित्र में १ अध्याय है। ३ गुणों में विभाजन से प्रत्यक्ष विश्व बनता है, जो लक्ष्मी है (लक्ष = देखना)। पुनः ३-३ विभाजन द्वारा इनको समझते हैं, जिसे वेद में तिस्रस्त्रेधा कहा गया है। इसके अनुसार ज्ञान रूप सरस्वती चरित्र में ३ × ३ = ९ अध्याय हैं।
२. ॐ - एक ॐ अव्यक्त या अविभाज्य ब्रह्म है। अविभक्तं विभक्तेषु तजज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् (गीता, १८/२०)
किसी भी प्रकार से तीन विभाग करने पर कुछ अविभक्त बच जाता है।
ॐ के विभाजन हैं-
अ = ब्रह्म या ब्रह्मा - अक्षराणां अकारोऽस्मि (गीता, १०/३३)
उ = विष्णु।
म = शिव।
अर्ध मात्रा- अविभाज्य ब्रह्म या पराशक्ति -
अर्द्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः। (पुराणोक्त रात्रि सूक्त), चण्डी पाठ, अध्याय १।
३. त्रितार-त्रितार या गुप्त प्रणव-
ॐ तत्सदितिनिर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः (गीता, १७/२३)
ॐ तत् सत् = ईं ॐ श्रीः
तत् = ईं = जगद् + ईश + जीवात्मा का एकत्व।
वेद में-य ईं चकार न सो अस्य वेद य ईं ददर्श हिरुगिन्नु तस्मात् (ऋक्, १/१६४/३२)
यहां प्रत्यक्ष जगत् का निदर्शक ईंकार है।
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति (ऋक्, १/१६४/१०)
नेमवग्लापयन्ति = न + ईं + ग्लापयन्ति = उस परम पुरुष को देख नहीं पाते (अव = नीचे, ग्लापयन्ति = प्रकाश डालते हैं)
य ईं चिकेत गुहा भवन्तमा यः ससाद धारामृतस्य। (ऋक्, १/६७/४)
= जो ईं को (चिकेत) स्पष्ट देखता है, वह गुहा में स्थित अन्तरात्मा का भी अनुभव कर सकता है।
श्रीसूक्त में-तां पद्मिनीमीं (पद्मिनीं + ईं) शरणमहं प्रपद्ये।
आयातु वरदा देवी अक्षरं ब्रह्म सम्मितम्। गायत्री छन्दसां माता इदं ब्रह्म जुषस्व मे॥
(तैत्तिरीय आरण्यक, १०/३४, नारायण उपनिषद्, १५/१)
वरदा देवी तथा अक्षर ब्रह्म दोनों सम्मित (बराबर माप) हैं। इदं ब्रह्म (दृश्य जगत्) = ईं।
ईङ्काराय स्वाहा। ईङ्कृताय स्वाहा। (तैत्तिरीय संहिता, ७/१/१९/९)
श्री लक्ष्मी का बीजाक्षर है-
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ (वाज्. यजु. ३१/२२)
श्री = अदृश्य विभूति-यश, तेज आदि। लक्ष्मी = दृश्य सम्पत्ति।
४. एकाक्षरों के त्रयी रूप-
(क) श्री का त्रयी रूप-
अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपाय। यमृषिस्त्रयि विदा विदुः।
ऋचः सामानि यजूंषि। साहि श्रीरमृता सताम्॥
(तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/२/१/६९)
ॐ = व्यक्त प्रणव, ईं = गुप्त प्रणव, श्रीः = शाक्त प्रणव-तीनों के ३-३ खण्ड हैं-
ईं = इ + ई + म। ई = इह (यहां) लोक।
ई = दृश्य जगत् (ई गति-व्याप्ति-ब्रजन-कान्त्यसन-खादनेषु, धातुपाठ २/४१)
म् = ब्रह्म।
श्री = श + र + ईं।
श = महालक्ष्मी। र = धन, ई = तुष्टि।
(ख) ह्रीं = ह + र + ई।
ह = शिव, र = प्रकृति, ई = महामाया।
ई अक्षर देवी के शरीर का रूप है-
मुखं बिन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो,
हरार्धं ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथ कलाम्।
स सद्यः संक्षोभं नयति वनिता इत्यतिलघु,
त्रिलोकीमप्याशु भ्रमयति रवीन्दुस्तनयुगाम्॥
(शङ्कराचार्य, सौन्दर्य लहरी, १९)
हर = शिव, हरि = विष्णु।
(ग) मन्मथ कला = क्लीं या ईं।
यही त्रिपुरोपनिषद्, ११ में भी है-
यद्वा मण्डलाद्वा स्तनबिम्बमेकं मुखं चाधस्त्रीणि गुहासदनान्।
कामीकलां कामरूपां चिकित्वा नरो जायते कामरूपश्चकामः॥
क = कर्ता रूप ब्रह्म- 'क'स्मै देवाय हविषा विधेम (हिरण्यगर्भ सूक्त)
रं = प्राण, अदृश्य। शब्द रूप में राम (अरबी में रहीम)-
ॐ खं ब्रह्मं, खं पुराणं (पुर में गतिशील प्राण) वायु रं इति ह स्माह। (बृहदारण्यक उपनिषद् , ५/१/१)
प्राणो वै रं, प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ति। (शतपथ ब्राह्मण, १४/८/१३/३, बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१२/१)
क्रीं = कर्ता ब्रह्म से अदृश्य जगत्। शब्द रूप में कृष्ण। अरबी में संयुक्त अक्षर नहीं रहने से क्रीं का करीम हो जाता है।
लं = अग्नि तत्त्व, दृश्य जगत्।
क्लीं = कर्ता ब्रह्म से दृश्य जगत्। शब्द रूप काली। अरबी में क्लीं का कलीम।
(घ) ऐं- ऐं = आश्चर्य, उत्सुकता, जिज्ञासा। जिज्ञासा से ही ज्ञान का आरम्भ होता है, अतः यह सरस्वती का बीज मन्त्र है। इसका अनुस्वार अव्यक्त ब्रह्म या प्रकृति है। ऐ के तीन खण्डों से तीन वेदों का आरम्भ होता है।
ऐ = अ + ए = अ + (अ + इ)
अ से ऋग्वेद का आरम्भ- अग्निमीळे पुरोहितं।
इ से यजुर्वेद- इषे त्वा ऊर्जे त्वा वायवस्थः।
अ से सामवेद- अग्न आयाहि वीतये।
विपरीत क्रम से (इ + अ) = य। इससे ब्रह्म रूप अथर्ववेद का आरम्भ- ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः।
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