पुरुष सूक्त 

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  • धर्म-पथ
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  • 31 October 2024
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श्री  सुशील जालान- mystic power - पुरुष सूक्त चारों वेदों का शीर्ष मुकुट है, शिरोमणि है। ऋग्वेद, दशम् मण्डल, सूक्त संख्या 90 में इस सूक्त के ऋषि नारायण और देवता पुरुष माने गए हैं। पुरुष सूक्त की प्रथम ऋचा का पूर्वार्ध है - "सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्", अन्वय है, स: अस्त्र शीर्षा पुरुष: स: अस्त्र अक्ष: स: अस्त्र पात् यह उस विराट पुरुष नारायण के लिए कहा गया है, सक्षम ब्रह्म-योगी के लिए, जिसका सुमेरु शीर्ष सहस्रार पूर्णतः जाग्रत है। सहस्रशीर्षा, पदच्छेद है, स: + अस्र + शीर्षा, - सहस्र को सहस्त्र भी कहा जाता है,‌ स: + अस्त्र, स:अस्त्र, पदच्छेद है, स: + अ + स् + त्र् + अ, - स: पुल्लिंग है, विसर्ग के कारण कर्म प्रधान है, - अ है आदि काल से, - स् स्त्रीलिंग है धारण करने के संदर्भ में, - त्र् है त्रिगुणात्मिका शक्ति मूल प्रकृति रूप, - अ है मूल शक्ति को स्थिर करने के लिए। शीर्षा, पदच्छेद है, श् + ई + र् + ष् + आ‌, - श् है काम का शमन, अर्थात् पांचों ज्ञानेंद्रियों तथा पांचों कर्मेंद्रियों की बाह्य क्रियाओं का शमन करने के‌ संदर्भ में, - ई है दीर्घ काल तक इस शमन का संकल्प, - र् है अग्नि तत्त्व, मणिपुर चक्र में स्थित, - ष् है मूर्धा में स्थित गुह्य विवर, - आ है दीर्घ काल तक अग्नि तत्त्व को विवर में, सहस्रार में, सर्वोच्च स्थान में, स्थित करना। अर्थ हुआ, - वह क्रियाशील सगुण ब्रह्म जिसमें मूल त्रिगुणात्मिका प्रकृति शक्ति के रूप में स्थित है, आदि काल से। - सुमेरु शीर्ष पर दिव्य अस्त्र आदि/दीर्घ काल से स्थित है, जिसका सभी जीवों, स्थानों व काल में उपयोग किया जा सकता है। पुरुष:, पुर + उष् + अ:, - पुरुष का शब्द रूप है प्रथमा विभक्ति में एकवचन, अर्थात् एक पुरुष, कर्त्ता के रूप में, वह दिव्य अस्त्र धारी ब्रह्म-योगी, - पुर देह है और उष् है ऊर्ध्व मूर्धन्य में, द्युलोक में, उषा काल का प्रकाश। ष् वर्ण का उच्चारण मूर्धा से किया जाता है। - अ: है विसर्ग, कर्म के संदर्भ में। "विसर्ग: कर्म संज्ञित:" - श्रीमद्भगवद्गीता (8.3) सहस्राक्ष:, पदच्छेद है, स: अस्त्र अक्ष:, स: अस्त्र, त्रिगुणात्मिका मूल प्रकृति को‌ दिव्य अस्त्र के रूप में ‌प्रयोग के लिए धारण करना, इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति के रूप में। अक्ष:, अ + क्ष् + अ: - अ है प्रकट होने के संदर्भ में, - क्ष् वर्ण है वीर्य का समुद्र, क्षीर-सागर, नारायण की शैय्या, - अ: विसर्ग है उपयोग में लाने के लिए। अर्थ हुआ, वीर्यवान् पुरुष वीर्य के समुद्र, अंडकोष, से शुक्राणु को ऊर्ध्व कर सहस्रार - आज्ञा चक्र में केन्द्र-बिंदु के रूप में स्थापित करता है, उसमें ध्यान केंद्रित करता है, उपयोग करने के लिए। सहस्रपात्, पदच्छेद है, स: अस्त्र पात्, - आज्ञा चक्र में स्थापित उस एक केन्द्र-बिन्दु से अस्त्र का प्रक्षेपण। - एक केन्द्र-बिन्दु से तीन बिन्दु प्रकट होते हैं मूल प्रकृति के तीनों गुणों में एक एक से युक्त, रज, तम और सत्, अर्थात् क्रमशः इच्छा, ज्ञान और क्रिया। - इन तीनों के उपयोग से सभी दिव्यास्त्रों का प्रक्षेपण कर सकता ब्रह्म-योगी पुरुष नारायण। संप्रदाय भेद से इस ब्रह्मयोगी पुरुष को परम् शिव भी कहा जाता है, जो धारण करता है दिव्य अस्त्र त्रिशूल, जो प्रतीक है त्रिगुणात्मिका प्रकृति का, रज, तम और सत् का। त्रिशूल के बीच वाला शूल रजोगुणी है। इस क्रियात्मक त्रिगुणात्मिका शक्तिविशेष मूल प्रकृति को संप्रदाय भेद से विभिन्न संज्ञाओं से विभूषित किया जाता है, यथा - आद्या, कुमारी, भगवती, सती, पार्वती, ललिता, कामेश्वरी, अन्नपूर्णा, दुर्गा, आदिशक्ति, शिवा, परमेश्वरी, आदि। इस परम् विद्या को साधना भेद से कई संज्ञाएं दी गई है, यथा - ब्रह्मविद्या, श्रीविद्या, त्रिक्विद्या, त्रयीविद्या, आदि। .... 3



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