अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
रामायण के ऐतिहासिक स्थल तथा रावण के साथ के युद्ध स्थलों के विषय में बहुत से भ्रम हैं। नासिक या कर्णाटक के किष्किन्धा विषय में बहुत प्रचार होने से वहां कई तीर्थ स्थान बन गए हैं और लोगों की श्रद्धा हो गई है।
(१) काशी राज्य-राम काल में काशी राज्य या नगर का कोई विवरण नहीं मिलता है। काशी के राजा दिवोदास तथा सुदास बहुत पूर्व से थे जिनका उल्लेख ऋग्वेद तथा कई पुराणों में तथा सुश्रुत संहिता में है। सम्भवतः काशी क्षेत्र के अंश उस समय अयोध्या मिथिला के अंश थे। बक्सर या विश्वामित्र का सिद्धाश्रम निश्चित रूप से काशी राज्य में था, पर उसकी समस्या के लिए विश्वामित्र अयोध्या राजा के पास गये थे।
(२) विश्वामित्र आश्रम से ही रावण के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ हो गया था, जिसकी पूर्णता रावण के विरुद्ध प्रत्यक्ष युद्ध से हुई। सिद्धाश्रम तथा दण्डकारण्य में रावण की सेनायें प्रत्यक्ष युद्ध नहीं कर रही थीं। वर्तमान पाकिस्तान के आतंकवाद की तरह छद्म युद्ध था। इसके विरुद्ध बक्सर या दण्डकारण्य में अपने ही क्षेत्र में सैनिक आक्रमण नहीं हो सकता था। इसके लिए १४ वर्ष तक वनों में घूम घूम कर देश के भीतर के असुर शक्तियों को समाप्त करना था। इसे देवों की योजना कहा गया है जिसके लिए विश्वामित्र, भरद्वाज तथा अगस्त्य ने अस्त्र शस्त्र तथा तन्त्र द्वारा सहायता की।
(३) राम जन्म से पूर्व भी दशरथ का असुरों से युद्ध हो चुका था, जिसमें कैकेयी भी गयी थी। यह शम्बर के साथ हुआ था जो वर्तमान शबर क्षेत्र दक्षिण ओड़िशा का कोरापुट, गजपति जिला, आन्ध्र प्रदेश का श्रीकाकुलम, विजयनगर आदि थे। उससे बहुत पूर्व सहस्रार्जुन से भी रावण का युद्ध हुआ था। यहां रावण कोई एक व्यक्ति का नाम नहीं था, बल्कि लंका राजा की सम्मान सूचक उपाधि थी। सम्मान के लिए काशी क्षेत्र में रवा (आप) कहते हैं, दक्षिण भारत में राव उपाधि है। जिस मनुष्य में यज्ञ रूपी वृषभ रव कर रहा है, वह रवा या राव है। रावण तथा पुरुरवा की व्युत्पत्ति भी यही कही गई है। तमिल में राव को रावण कहते हैं, जैसे रामन, कृष्णन आदि हैं।
(४) शबर क्षेत्र के निकट ही किष्किन्धा का उत्तर भाग था जिस पर बालि का प्रभुत्व था। शबर प्रभुत्व की निकटता के कारण बालि को रावण से मित्रता करनी पड़ी। रावण को समाप्त करने के लिए बालि को समाप्त कर उसके प्रतिद्वन्द्वी सुग्रीव को राजा बनाना आवश्यक था। बालि के व्यक्तिगत चरित्र का विशेष महत्व नहीं है।
(५) बालि को जहां राम ने मारा था वहां पर साल के ७ पेड़ थे। इन पेड़ों को राम ने एक बाण से काटा था। सामान्यतः उत्तर भारत में हिमालय की तराई में साल वन का क्षेत्र है। किन्तु मिट्टी के उपयोगी खनिज तथा अधिक वर्षा के कारण साल वन का क्षेत्र गोरखपुर, सारनाथ, रोहतास, पलामू, सिंहभूमि, सुन्दरगढ़, सम्बलपुर, कालाहाण्डी होते हुए कोरापुट तक चला गया है। उत्तर भारत में साल तथा दक्षिण भारत में टीक को शक (बड़ा कुश, या स्तम्भ आकार का) वृक्ष कहा गया है। अतः साल को शक या सखुआ, टीक को शकवन या सागवान भी कहते हैं। साल वृक्ष का सबसे दक्षिण का स्थान कोरापुट का मैथिली थाना है जहां मैथिली सीता जी का निवास था। उसके पूर्व बालिमेला थाना भी साल क्षेत्र में है, जहाँ लोकोक्ति के अनुसार बालि मरा था। ओड़िया में 'बालि मला' = बालि मरा। उसके दक्षिण साल वन नहीं है तथा अब तक के शोध अनुसार प्राचीन काल में भी नहीं था। अतः बालि का स्थान इससे दक्षिण सम्भव नहीं है।
(६) उत्तर किष्किन्धा में कोरापुट के उत्तर कन्धमाल जिला है वह किष्किन्धा की उत्तर सीमा थी। वहां के निवासी कन्ध हैं तथा उसके ऊंचे स्थान को मेघदूत में भी माल कहा गया है। दक्षिण भारत में 'माल' का 'मलै' हो गया है-अन्नामलै,मलयालम। पर्वतीय स्थानों के मुख्य मार्ग को अंग्रेजी में माल रोड कहते हैं। कन्ध भाषा में तथा ओड़िया में लांज का अर्थ लंगोटा तथा वानर की पूंछ भी है। एक लांजिगढ़ थाना भी है जहाँ के वीरदेव रानी दुर्गावती के पति थे।
(७) आजकल कन्धमाल के पर्वतों को ही महेंद्र पर्वत कहते हैं। धनुष यज्ञ के बाद परशुराम इसी महेंद्र पर्वत पर आये थे जहां सुमेधा ऋषि ने उनको दीक्षा दी थी। उनकी शिक्षा त्रिपुरा रहस्य तथा चण्डी पाठ में है। इनको बौद्ध लोग सुमेधा बुद्ध कहते थे तथा १० महाविद्या का नाम १० प्रज्ञा-पारमिता कर दिया है। कालिदास ने भी रघु-दिग्विजय प्रसंग में कलिंग राजा को ही महेंद्र राज कहा है। रामायण काल में भारत के पूर्व तट के पर्वतों को महेंद्र पर्वत कहा है, जहां से हनुमान ने लंका के लिए प्रस्थान किया था। यह सम्भवतः वर्तमान तिरुपति तक था जिसके दक्षिण का समुद्र तट 'समुद्र' राज्य था। अलाउद्दीन खिलजी ने जब मदुरा पर आक्रमण किया था तब इसे 'द्वार-समुद्रम्' कहा गया है। राम ने यहीं के राज्य से मार्ग देने का अनुरोध किया था, जड़ समुद्र से नहीं।
(८) दक्षिण भारत में वर्षा के अनुसार तीन क्षेत्र हैं-पश्चिम घाट की ऊंची पहाड़ियों के पश्चिम का भाग में भारी वर्षा होती है। उसके पूर्व मध्य भाग वर्षा छाया भाग है जिसमें विदर्भ (जहां कम दर्भ हो), तेलंगाना, पूर्व महाराष्ट्र, मध्य कर्णाटक आदि हैं। पूर्व तट में महेंद्र पर्वत के विस्तृत मैदान भाग में कृषि क्षेत्र है जिसके कृषकों को वेद में रेळ्हि तथा आजकल रेड्डी कहते हैं (ऋग्वेद, १०/११४/४)। नासिक तथा कर्णाटक का प्रचलित किष्किन्धा इस मार्ग में थे ही नहीं। भगवान राम के भी वहां जाने का कोई कारण नहीं था। केवल नासिक नाम से उसका मूल शूर्पणखा के नाक कटने से मान लिया गया है तथा पञ्चवटी आदि स्थान भी बन गए हैं।
(९) दक्षिण कोरापुट में दण्डकारण्य है। मैथिली थाना के दक्षिण माल्यवान पर्वत था जिसे अभी मलकानगिरि कहते हैं। अभी मलकानगिरि अलग जिला है। मैथिली थाना के पूर्व बोण्डा पर्वत पर सीता झरना है। वहाँ सीता जी वस्त्र खोलकर नहा रही थी तो स्थानीय स्त्रियां उन पर व्यङ्ग कर रही थीं। सीता जी ने उनको शाप दिया था कि वे वस्त्र नहीं पहनेंगी। ४० वर्ष पूर्व तक वहां की स्त्रियां वस्त्र नहीं पहनती थीं। मैं वहां १९८३ में था जब स्कूल छात्राओं ने वस्त्र पहनना आरम्भ किया था। सीता झरना वहां के रामगिरि पर्वत के पास शबरी-सिलेरू नदी में मिलती हैं, जो गोदावरी की सहायक हैं। रामगिरि पर्वत की गुफा में गुप्तेश्वर शिवलिंग है जहां प्रतिवर्ष मेला लगता है। सीता जी तो हर स्थान पर स्नान करती थीं, किन्तु वहां के स्नान की विशेष घटना हुई थी जिसका उल्लेख मेघदूत के आरम्भ में है-तस्मिन्नद्रौ जनकतनया स्नान पुण्योदकेषु। श्री वासुदेव मीरासी ने इस रामगिरि को नागपुर का रामटेक सिद्ध करने की चेष्टा की थी। इस मिथ्या अभियान का प्रचार कर ४ व्यक्ति संस्कृत विश्वविद्यालयों के कुलपति भी बन गए। मीरासी जी या ये कुलपति कितने भी विद्वान् हों, मॉनसून वर्षा का आरम्भ नागपुर से नहीं होगा। वह वर्षा-छाया या बिना दर्भ का विदर्भ ही रहेगा। इसका विपरीत केवल कृषि क्षेत्र दर्भङ्गा है, जहां राजा भी अनुष्ठान रूप में हल चलाते थे। इसके चारों तरफ अरण्य क्षेत्र हैं-सारण, चम्पारण, आरण्य (आरा), कीकट (मगध), पूर्ण अरण्य (पूर्णिया)।
(१०) माल्यवान गिरि या उसके कुछ दक्षिण पूर्व समुद्र तट के पर्वत ही प्रवर्षण गिरि हो सकते हैं। आजकल यह किसी पर्वत का नाम नहीं है, किन्तु यह कर्णाटक के किष्किन्धा में सम्भव नहीं है। यह मैथिली-रामगिरि से आरम्भ कर गोदावरी-सागर संगम के बीच ही हो सकता है।
(११) प्रवर्षण गिरि के निकट ही विभिन्न स्थानों से आयी सेना एकत्र हुई थी। उसके लिए समतल विस्तृत भूमि की आवश्यकता थी जिसमें जल तथा भोजन की सुविधा हो। राजमहेन्द्री के निकट गोदावरी तट पर तथा नदी के भीतर द्वीपों में १०० गाँव लंका नाम के थे जहां लंका पर आक्रमण के लिए सेना एकत्र हुई थी। आज भी १० ऐसे गाँव हैं। इनके व्यवस्थापक या सेनापतियों की उपाधि भी लंका थी जो आज भी दक्षिण ओड़िशा तथा आन्ध्रप्रदेश के क्षत्रियों की एक प्रचलित उपाधि है। ओड़िशा में लंका को लेंका भी लिख रहे हैं।
(१२) लंका नगर मालदीव के निकट था जिस देशान्तर पर उज्जैन है। लंका द्वीप को अभी लक्कादीव या लक्षद्वीप कह रहे हैं। दक्षिण भाग रामायण अनुसार माली द्वीप था, जो अभी मालदीव है। वर्तमान श्रीलंका सिंहल था जो राजनैतिक रूप से लंका का ही भाग था। यह लंका राजधानी थी, पूरा राज्य नहीं था। स्वर्ण भूमि आस्ट्रेलिया थी, जो दिव्यास्त्रों से जल गया। माली, सुमाली के राज्य आज भी अफ्रीका में हैं-पश्चिम अफ्रीका का माली, मिस्र के पूर्व का सोमालिया। रामायण के अनुसार १८ क्षेत्रों में युद्ध हुआ था, जिनके १८ सेनापतियों का नाम लिखा है। इनको रामचरितमानस में 'पदुम अठारह जूथप बन्दर' कहा है। आस्ट्रेलिया तथा मार्ग में इण्डोनेसिया के द्वीपों पर आक्रमण के लिए सिंगापुर सबसे महत्वपूर्ण है, जो मूल शृङ्गवेरपुर है। यह नक्शे में भी शृङ्ग या सींग जैसा दीखता है। प्रयाग के निकट शृङ्गवेरपुर का राजा मिलने के लिए आ सकता है, उस स्थान का कोई सामरिक महत्व नहीं है।
Comments are not available.