श्री अरुण कुमार उपाध्याय ( धर्मज्ञ )-
Mystic Power- (१) अप्-अग्नि - आकाश में फैला हुआ विरल पदार्थ अप् है जिसके ९ स्तर हैं, जिनमें ९ स्तर की सृष्टि और उनके चक्रों के ९ कालमान हैं। घनीभूत पिण्ड या ऊर्जा अग्नि है। अग्नि के ३ मुख्य रूप हैं-मूर्ति पिण्ड, गति, प्रभाव या साम।
अप् वेद -अथर्व। अप् क्षेत्र में २ प्रकार की क्रिया हो रही हैं-भृगु = आकर्षण, अङ्गिरा = विकर्षण। दोनों के ३-३ स्तर हैं। भृगु-अङ्गिरा का सन्तुलन स्थिर अथर्व है (थर्व = थरथराना)।
आपो भृग्वङ्गिरोरूपं आपो भृग्वङ्गिरोमयम्।
सर्वमापोमयं भूतं सर्वं भृग्वङ्गिरोमयम्॥ (गोपथ ब्राह्मण पूर्व, १/३९)
सन्तुलन होने पर शान्त या अथर्व है, असन्तुलन होने पर घोर विद्या है। अङ्गिरा का तेज आक्रमण के लिए है-
श्रुती-रथर्वाङ्गिरसी कुर्यादित्यविचारयन्।
वाक् शास्त्रं वै ब्राह्मणस्य तेन हन्यादरीन् द्विजः॥ (मनु स्मृति, ११/३३)
अप् का विस्तार श्री या स्त्री है, यह तेज ग्रहण करता है (योषा = युक्त होना)। इसे भोक्ता सुपर्ण या पिप्पलाद कहा है जिसका आरम्भ है-
सिन्धुद्वीपोऽथर्वा वा ऋषिः, अपांनपात् सोम आपश्च देवताः। गायत्री छन्दः।
शं नो देवीरभीष्टय, आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः॥१॥
(अथर्व-पैप्पलाद संहिता १/१/१, शौनक संहिता १/६/१)
द्रष्टा या साक्षी सुपर्ण विश्व का ३ तथा ७ विभाग देखता है, जिसके अनुसार ऋक् की २१ शाखा हैं।
अथर्वा ऋषिः, वाचस्पतिर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः।
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे॥१॥ (अथर्व, शौनक संहिता)
ऋक् स्थिर अग्नि या मूर्ति रूप है। इसका प्रथम मन्त्र-
अग्निमीळे पुरोहितम्। होतारं रत्नधातमम्। यज्ञस्य देवमृत्विजम्॥
यह सम्मुख (पुरः) अग्नि है।
यजुर्वेद अग्नि की गति है, गति की दिशा या अक्ष इषा है, जिस केन्द्र से यज्ञ होता है-
यजुर्वेद का प्रथम मन्त्र-
इ॒षे त्वो॑र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु आप्या॑यध्व मघ्न्या॒ इन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्तेन ई॑षत माघशँ॑सो ध्रुवा अ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यजमा॑नस्य प॒शून्पा॑हि
सामवेद का प्रथम मन्त्र-अग्न आयाहिवीतये, गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि।
यह अग्नि का विस्तार या महिमा है जिसका प्रभाव दूर से आता है।
(२) इनको अग्नि-वायु-रवि भी कहा गया है, जिनसे यज्ञ होता है।
अग्नि वायु रविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः साम लक्षणम् ॥(मनु स्मृति, १/२३)
सौर मण्डल के सन्दर्भ में पृथ्वी कक्षा तक अग्नि क्षेत्र (सूर्य से १०० व्यास दूर तक), यूरेनस कक्षा तक वायु क्षेत्र है, जहां तक सौर वायु जाती है। सौर मण्डल की सीमा तक रवि क्षेत्र है, जहां तक सूर्य का प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है। अहर्गण माप में इनका विस्तार त्रिष्टुप् छन्द के ३ पादों से है-११, २२, ३३ अहर्गण तक। पृथ्वी त्रिज्या का २ घात (क-३) ’क’ अहर्गण हुआ।
(३) शब्द रूप में मूल वेद एक ही था जो ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को पढ़ाया था। अतः इसे ब्रह्म या अथर्व वेद कहते थे। बाद में आङ्गिरस भरद्वाज ने इसे ४ वेद और ६ अङ्गों में विभाजित किया।
ब्रह्मा देवानां प्रथमं सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता। स ब्रह्म विद्यां सर्व विद्या प्रतिष्ठा मथर्वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह। अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा ऽथर्वा तां पुरो वाचाङ्गिरे ब्रह्म-विद्याम्। स भरद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भरद्वाजो ऽङ्गिरसे परावराम्। द्वे विद्ये वेदितव्ये- ... परा चैव, अपरा च। तत्र अपरा ऋग्वेदो, यजुर्वेदः, सामवेदो ऽथर्ववेदः, शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्दो, ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते। (मुण्डकोपनिषद्,१/१/१-५)
(४) शब्द वेद के विभाजन का भी वही आधार था। ऋक = मूर्ति, यजु = गति, साम = महिमा या प्रभाव। सबका आधार ब्रह्म रूप अथर्व।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१२/८/१)
मूर्ति, गति, महिमा विभाजन के बाद भी कुछ अविभक्त अथर्व रह गया। इसका प्रतीक पलास है, जिसका दण्ड वेदारम्भ संस्कार में प्रतीक रूप में प्रयोग होता है। पलास दण्ड से ३ पत्र निकलने पर मूल भी बचा रहता है। अतः त्रयी का अर्थ है ४ वेद =१ मूल + ३ शाखा।
यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः संपिबते यमः।
अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणां अनु वेनति॥ (ऋक्, १०/१३५/१)
तेजो वै ब्रह्मवर्चसं वनस्पतीनां पलाशः-ऐतरेय ब्राह्मण २/१)
ब्रह्म वै पलाशस्य पलाशम् (= पर्णम्)। (शतपथ ब्राह्मण, २/६/२/८)
किसी वस्तु का साम या प्रभाव जहां तक पहुंचता है, वहीं तक उसका ज्ञान हो सकता है। अतः भगवान् ने अपने को वेदों में सामवेद कहा है (गीता, १०/२२)।
Comments are not available.