गुरु गोविन्द सिंह जी - संतों के क्षात्रधर्म का उत्तम उदाहरण !

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  • महापुरुष
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  • 31 October 2024
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कु.कृतिका खत्री , सनातन संस्था- दिल्ली mysticpower- हिन्दू धर्म वीरों की गाथाओं से भरा पड़ा है, जिनकी गाथाएं आज भी समाज को प्रेरित कर रही हैं। ऐसे वीरों में गुरु गोविन्द सिंह जी का नाम अग्रणी स्थान पर लिया जाता है। युद्ध में शुभता सीखनी हो तो गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। ईश्वर से हम सभी हमेशा कुछ न कुछ मांगा करते हैं और अधिकतर यह सब हमारे स्वार्थ से संचालित होता है। लेकिन मांगना क्या होता है, मांगा क्या जाता है, इसकी जो सीख गुरु गोबिंद सिंह ने दी, वह आज भी उदाहरण है। वे कहते थे, ‘देहि शिवा वर मोहि इहै, शुभ करमन ते कबहू न टरौं।’ अर्थात वरदान हो तो यही हो कि अच्छे कर्मों से हम कभी पीछे न हटें, परिणाम भले चाहे जो हो। https://www.mycloudparticles.com/ औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर का शिरच्छेद करवा दिया। उनकी शहादत के बाद उनकी गद्दी पर गुरु गोविंद सिंह जी को बैठाया गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 9 वर्ष थी। गुरु की गरिमा बनाए रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएं सीखीं। गुरु गोविंद सिंह ने धनुष-बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। गुरु गोविंद सिंह जी ने जीवनभर क्षात्रधर्म साधना की । उन्होंने अपने शिष्यों तथा अपनी संतान को भी सदैव क्षात्रधर्म साधना की ही सीख दी । उनके जीवनकाल में मुगल साम्राज्य के अनेक दुष्ट नवाबों ने प्रजा पर अनगिनत अत्याचार किए। अन्याय सहन न करते हुए गुरु गोविंद सिंह जी ने ऐसे दुष्टों का डटकर सामना किया। कई बार उन्होंने जिहादियों से युद्ध कर उन पर विजय प्राप्त की । वे सदा ही धर्म (केवल सत्-ईश्वर) हेतु लडना अपना कर्तव्य एवं ईश्वरीय कार्य मानते थे । गुरु नानक देव जी के सुवचन को उन्होंने भलि-भांति आत्मसात कर लिया था । वे सदैव कहते थे – ईश्वर से यदि सच्चा प्रेम हो, तो यह खेल खेलने (सत् हेतु लडाई) अपना शीश अपनी हथेली में रखकर, तैयार रहें तथा निर्भय होकर आगे बढें । धर्म हेतु (सत्) ही हमें गुरुदेव ने इस जगत में भेजा है।   गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने चारों पुत्र अधर्मियों के विरुद्ध लडाई में भेंट चढा दिए । इस घटना को देश के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि उस समय देश में धर्म, जाति जैसी चीजों का बहुत ज्यादा बोलबाला था। उन्होंने सत्य के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करते हुए देग, तेग एवं फतेह का आदर किया । देग अर्थात कडाही, जिसमें सत्संग-भंडारे का भोजन बनता है; तेग अर्थात तलवार एवं फतेह अर्थात सत् की असत्य पर विजय । उनकी वाणी भक्तिभाव एवं वीर रस से भरपूर रही । उन्होंने सिखों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया।   ऐसे वीरों का समाज सदैव ऋणी रहेगा। आइए उनकी वीरता से प्रेरणा लेते हुए हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए दृढ़संकल्पित हों तथा इस दिशा में तन, मन, धन से सहभागी हों।



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